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जे पढिया जे पंडिया जाहि वि' माणु मरट्ट । ते महिलाण' पिडि पडिय' भमियइ जेम घरट्टु
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शब्दार्थ- जे–जो; पढिया - विद्वान ( हैं ); जे पंडिया - जो पण्डित ( हैं ); जाहि - जिनके ; वि-भी; माणु- मरट्टु - मान-मर्यादा (है); ते - वे; महिलाणहं - महिलाओं के; पिडि - पिण्ड, शरीर ( पर मोहित हो कर ); पडिय -पड़ (कर); भमियइं- चक्कर काटते हैं; जेम - जिस तरह; घरट्टु - चक्की |
अर्थ - जो सुशिक्षित हैं, पण्डित - विद्वान् हैं, जिनके मान-मर्यादा बनी हुई हैं, वे भी जब महिलाओं के रूप-सौन्दर्य पर मोहित हो जाते हैं, तब ऐसा समझना चाहिए कि वे देह-पिण्ड के पीछे पड़कर ऐसे चक्कर काटते हैं, जैसे चक्की घूमती हो ।
भावार्थ - जैनधर्म में परिग्रह दो प्रकार का कहा गया है- भीतरी और बाहरी । बाहरी परिग्रह भी दो तरह का है - चेतन और अचेतन | पढ़े-लिखे व्यक्ति भी लोभ के कारण धन-मकान आदि को भी किसी भी प्रकार हथियाना चाहते हैं । उसके लिए तरह-तरह के प्रयत्न करते हैं और परेशान होते हैं। इसी प्रकार रूप - लोभ के कारण जब सचेतन परिग्रह को प्राप्त करने का उद्यम करते हैं, तब तरह-तरह से परेशान होते हैं। उनके मन-मस्तिष्क पर रूप-सौन्दर्य का ऐसा नशा चढ़ जाता है कि उसके बिना कुछ नहीं सूझता है। इसलिए बार-बार वही 'नारी - चित्र' आँखों के सामने घूमता है । वास्तव में वे वस्तु-स्वरूप से अनभिज्ञ हैं, इसलिए शरीर की बनावट, रूप-रंग आदि पर मोहित हो जाते हैं। लेकिन यह शरीर का सौन्दर्य सदा काल एक जैसा नहीं बना रहता है। समय परिवर्तन के साथ सब कुछ बदल जाता है । जो आज गुलाब के फूल जैसा खिला है, कल वही मुर्झा जाता है, आँखों और कपोलों पर पिचकापन झाँकने लगता है, सूरत और मूरत कुछ की कुछ हो जाती है। अतः समझदार व्यक्ति किसी सुन्दर स्त्री के चक्कर में नहीं पड़ते ।
सुन्दरी राग-रंग की मूर्ति है । उसके आलम्बन से राग व स्नेह का उद्रेक होता है । इसलिए नारी को लक्षकर वर्णन किया जाता है । यह नहीं समझना चाहिए कि किसी द्वेष - बुद्धि या घृणित भावना के कारण ऐसा कहा जाता है; परन्तु यह वास्तविकता है। सौन्दर्य गतिशील होता है । परिणमन वस्तु का स्वभाव है । अतः प्रत्येक समय में परिवर्तन होता रहता है। परिवर्तनशील वस्तु में आसक्त होना व्यक्ति का स्वभाव नहीं होना चाहिए ।
1. अ, सं जाहि मि; क, द जाहिं मि; ब जाह मि; 2. अ, ब, स महिलाणह; क महिलाहंहं; द महिलाण हि; 3. अ, क, द पिडि पडिय; ब पिडि पडिया; 4. अ, ब, स भमियइ; क भमियहिं; द भमियइ ।
186 : पाहुदोहा