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________________ अम्मिय' यहु' मणु हत्थिया विंझहर जंतउ वारि । तं भंजेसइ सील-वणु पुणु पडिस' संसारि ॥ 156॥ शब्दार्थ-अम्मिय-अहो!; यहु- यह; मणु-मन (रूपी); हत्थिया - हाथी; विंझह - विन्ध्याचल ( की ओर); जंतउ - जाते हुए (इसको); वारि - रोको; तं - उस (वह); भंजेसइ - नष्ट कर देगा; सील-वणु-शील रूपी वन को; पुणु - पुनः; फिर; पडिसइ - पड़ेगा; संसारि-संसार में । अर्थ - अहो ! इस मन रूपी हाथी को विन्ध्यपर्वत ( अभिमान शिखर) की ओर जाने से रोको। यह इस शील रूपी वन को छिन्न-भिन्न कर देगा, जिससे फिर संसार ( दुर्गति) में पतन होगा | भावार्थ- जो तरह-तरह के विकल्प करता है उसे मन कहा गया है। वह बड़ा बलवान है। उसे जीतना हाथी के समान है। इसलिए मन को हाथी कहा गया है। हाथी इतना बड़ा पशु है कि उस पर निमन्त्रण करना सम्भव नहीं है । केवल युक्तिपूर्वक उसे वश में किया जाता है। एक लम्बा-चौड़ा गड्ढा खोदकर उसमें सूखी घास भर दी जाती है, जिस पर कृत्रिम हथिनी बैठा दी जाती है । हाथी उस सुन्दर हथिनी को पकड़ने के लिए ज्यों ही वहाँ पहुँचता है, त्यों ही गड्ढे में गिर जाता है। फिर, उसे खाने-पीने को कम देते हैं, जिससे दुबला हो जाता है और तभी उसके पैरों में लोहे की साँकल डालकर उस पर नियन्त्रण कर लिया जाता है। इसी प्रकार मन भी एक हाथी है। उसे वश में करना सरल नहीं, बहुत कठिन कार्य है । व्रत- श्रुताभ्यास, तत्त्वचिन्तन आदि से उपवास पूर्वक मन रूपी हाथी के दुबले होने पर ही उस पर नियन्त्रण किया जा सकता है । प्रायः संसार के सभी प्राणी मन के गुलाम हैं। मन के माफिक सभी चलना चाहते हैं। मन जैसा नचाता है, वैसा सब नाच करते हैं । किन्तु हाथी की तरह मन को वश में करना किसी विरले व्यक्ति का ही कार्य है। मन को वश में करने के लिए युक्ति और पुरुषार्थ दोनों आवश्यक हैं। सम्पूर्ण साधु-सन्तों तथा गृहस्थों का धर्म आत्मस्वभाव के आश्रय से भलीभाँति सम्पन्न होता है। आत्मावलोकन व आत्मानुभव के बिना मन पर सहज नियन्त्रण नहीं होता; क्योंकि मन को रमने के लिए कोई सातिशय स्थान चाहिए। जो एक बार भी आत्म-स्वभाव में रम जाता है, वह फिर विषयों की ओर नहीं भागता । 1. अ, क, द, स अम्मिय; ब अमिअय; 2. अ, ब, स यहु; क, द, इहु; 3. अ, स विंझ; क, द, ब विंझह; 4. अ पडिहइ; क, द, स पडिसइ; ब पडय; 5. अ, क, द स संसारि; ब संसारे । . पाहुडदोहा : 185
SR No.090321
Book TitlePahud Doha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages264
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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