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दिगम्बर मुनि साक्षात् वीतरागता के मूर्तिमान् स्वरूप हैं। अतः वे तप और त्याग के आदर्श शिखर हैं।
णग्गत्तणि जे गव्विया विग्गुत्ता' ण गणंति। गंथहं बाहिरभिंतरहिं एक्कु' वि जे ण मुअंति ॥155॥
शब्दार्थ-णग्गत्तणि-नग्नत्व में; जे-जो (बहुवचन), जिन ने; गव्विया-गर्व किया; विग्गुत्ता-व्याकुलता (को); ण गणंति-नहीं गिनते हैं; गंथहं-ग्रन्थ के, परिग्रह के; बाहिरभिंतरहिं-बाहरी और भीतरी में से; एक्कु वि-एक भी; जे ण मुअंति-जो नहीं छोड़ते हैं।
__ अर्थ-जो नग्नत्व का गर्व करते हैं और व्याकुलता को कुछ नहीं गिनते हैं, वे बाहरी-भीतरी परिग्रह में से एक का भी त्याग नहीं करते।
भावार्थ-त्याग का सच्चा लक्षण है-राग-द्वेष, मोह को छोड़ना। जब तक व्यक्ति अहंबुद्धि नहीं छोड़ता, तब तक पर में अपनापन बना रहता है। इसलिए बाहर में किसी स्थान, क्षेत्र, वस्तु आदि को छोड़ देने मात्र से त्याग नहीं हो जाता; किन्तु बाहर में ऐसा ही प्रदर्शन किया जाता है कि अमुक, अमुक को छोड़ दिया। वास्तव में वह दिखावा मात्र है। क्योंकि शरीर से अपनेपन की बुद्धि छूटने पर बाहरी परिग्रह का त्याग होता है और पूर्ण वीतरागता प्रकट होने पर मोह का त्याग या अभाव होता है। इसलिए जो वास्तव में साधु हैं, उनको यह अभिमान नहीं होना चाहिए कि मैं साधु-सन्त हूँ, लोग मुझे क्यों नहीं मानते, क्यों नहीं पूजते? यदि यह अहंबुद्धि है, तो समझना चाहिए कि उनका त्याग सच्चा नहीं है।
प्रायः लोग यह समझते हैं कि अध्यात्म में बातें ही बातें हैं, त्याग या चारित्र कुछ नहीं है। किन्तु उनका ऐसा समझना भूल है। पं. जयचन्दजी छावड़ा ने 'समयसार' की भाषा टीका में लिखा है-“पर भाव को जानना, और फिर परभाव का ग्रहण न करना सो यही त्याग है।” वास्तव में अध्यात्म का त्याग ऊपर से दिखाई नहीं देता है, इसलिए लोगों ने बाहरी त्याग को ही त्याग समझ लिया है। बाहरी त्याग का निषेध नहीं है, किन्तु बाहर का त्याग दिखावटी या प्रदर्शन मात्र भी हो सकता है। दूसरे शब्दों में सच्चे त्याग का वह नियम से कारण नहीं होता। इसलिए वह नियामक नहीं है। व्यवहार में भी बाह्य और आभ्यन्तर दोनों प्रकार के परिग्रह की निवृत्ति का नाम त्याग है। हम केवल बाहर की निवृत्ति को त्याग मानते हैं, यही भूल है।
1. अ तणि; क, द, ब, स तेण; 2. अ विग्गुता; क विगुत्ता; द, स विग्गुत्ता; 3. अ गंथा; क, द गंथह; ब, स गंथह; 4. अ, द एक्कु जे; ब इक्क इ; स एक्कु वि; 5. अ जे ण मुएंति; क, द तेण मुयंति; व जे ण मुअंति; स ते ण मुअंति।
184 : पाहुडदोहा