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अर्थ-कोई भी ज्ञानी किसी भी प्रकार दयारहित धर्म का अवलोकन नहीं करता है। बहुत अधिक पानी बिलोने पर भी क्या हाथ चिकना हो सकता है? नहीं होता है।
भावार्थ-आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं-“धम्मो दयाविसुद्धो" (बोधपाहुड, गा. 25) अर्थात् जो विशुद्ध दया है (स्वात्मदया), वह धर्म है। लोक में यह प्रसिद्ध है कि धर्म दया है। तीर्थंकर के भी दयारूप धर्म पाया जाता है। उनके निमित्त से संसार के जीवों में करुणा भाव का प्रसार होता है, लेकिन वास्तव में स्वकरुणा ही दया है। 'विशुद्ध' शब्द का यही अर्थ है। जो दया पालता है, वह अपनी दया न पाले, तो उस दया से क्या लाभ है? इस स्वदया का पालन कर तीर्थंकर लोक पूज्य हो गए। यदि मोह से रहित होकर उन्होंने परमार्थस्वरूप आत्मधर्म को न साधा होता, तो वे जिनदेव कैसे होते? अज्ञानी लोग जिनको देव मानते हैं, उनके विशुद्ध दया नहीं है। क्योंकि कई हिंसक हैं, कई विषयासक्त हैं, मोही हैं, परिग्रही हैं, रागी-द्वेषी हैं, अतः उनके धर्म ही नहीं है। धर्म के बिना, जन्म-मरण से सहित परमसुखं (मोक्ष) कैसे हो सकता है? अंतः जिनदेव ही सच्चे देव हैं। ज्ञान का प्रकाश एक रूप है। केवलज्ञान का प्रकाश होने पर ही दिव्यध्वनि प्रकट होती है जो साक्षात् जिनवाणी है। उस जिनवाणी के रहस्य को धारण करने वाला ही सच्चा निर्ग्रन्थ गुरु है। देव, शास्त्र और गुरु-इन तीनों के बिना धर्म का मर्म प्रकट नहीं होता। धर्म सुखकारक है। अतः जैनधर्म के ये चार स्तम्भ हैं, जिन पर जैनशासन का महल स्थित है। जैनधर्म की प्रामाणिकता सर्वज्ञ से है और सर्वज्ञ की प्रामाणिकता जिनागम से है। वास्तव में शास्त्र के बिना कोई मत नहीं है। आगम या शास्त्र स्वयं एक प्रमाण है। न्यायशास्त्र के अनुसार मति-श्रुतज्ञान भी प्रमाण है। यदि इनको प्रमाण न माना जाए, तो लोक-व्यवहार नहीं चल सकता है।
भल्लजणाह' णासंति गुण जहिँ सहु संग खलेहिं। वइसाणरु लोहह मिलिउ पिट्टिज्जइ सुघणेहिं ॥149॥
शब्दार्थ-भल्लजणाह-भले लोगों के; णासंति-नष्ट होते हैं; गुण; जहिं-जहाँ; सहु संग-साथ (है); खलेहि-दुष्टों से; वइसाणरु-अग्नि (का); लोहहं-लोहे को; मिलिउ-मिला हुआ; पिट्टिज्जइ-पीटा जाता है; सुघणेहिं-घनों से।
1. अ, क, ब भल्लाहमि; द भल्लाण वि; स भल्लजणाह; 2. अ, स जहि; क, द, व जहिं; 3. अ लोह मिल्लिउ; क, द, स लोहहं मिलिउ; व लाहौ मिलिउ।।
178 : पाहुडदोहा