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भावार्थ - आचार्य कुन्दकुन्द का कथन है कि शास्त्र ज्ञान नहीं है, क्योंकि शास्त्र कुछ जानता नहीं है। उनके शब्दों में
सत्यं गाणं ण हवदि जम्हा सत्थं ण याणदे किंचि ।
तम्हा अण्णं गाणं अण्णं सत्यं जिणा बेंति ॥ समयसार, गा. 390
अर्थात् - शास्त्र ज्ञान नहीं है, क्योंकि शास्त्र कुछ जानता नहीं है (जड़ होने से)। इसलिए जिनदेव कहते हैं कि ज्ञान अन्य है और शास्त्र अन्य है। शास्त्र अचेतन है । अचेतन में जानने, देखने की शक्ति नहीं होती है । इसलिए शास्त्र भिन्न है और ज्ञान भिन्न है। ज्ञान आत्मा का अनन्य गुण है। ज्ञान तो जानन रूप है।
मुनिश्री योगीन्दुदेव कहते हैं - आत्मा ध्यानगम्य है; शास्त्रगम्य नहीं है, क्योंकि जिनको शास्त्र सुनने से ध्यान की सिद्धि हो जाती है, वे ही आत्मा का अनुभव कर सकते हैं। जिस किसी ने आत्मा को प्राप्त किया है, उसने ध्यान से ही पाया है और शास्त्र सुनना तो ध्यान का उपाय है - ऐसा समझकर अनादि, अनन्त चिद्रूप में अपना परिणाम लगाओ। (परमात्मप्रकाश, 1, 23 )
जो जीव निश्चय से श्रुतज्ञान के द्वारा इस अनुभवगोचर केवल एक शुद्ध आत्मा के सन्मुख होकर जानता है, उस लोक को प्रकट जानने वाले ऋषीश्वर उसे श्रुतकेवली कहते हैं । ( आ. कुन्दकुन्द : समयसार, गा. 9)
यथार्थ में शुद्ध भाव तो आत्मदर्शन, आत्मज्ञान है। दूसरे शब्दों में मिथ्यात्व, रागादिरहित परिणाम शुद्ध भाव है। शुद्ध भाव से कर्म का बन्ध नहीं होता है। यही नहीं, शुद्ध भाव संवर तथा निर्जरा का कारण है । अतः मोक्ष शुद्ध भाव से प्राप्त होता है ।
दयाविहीणउ धम्मडा णाणिय' कह वि ण जोइ । बहुएँ सलिलविरोलियई करु चोप्पडा ण होई ॥148 ॥
शब्दार्थ - दयाविहीणउ - दया (से) विहीन; धम्मडा - धर्म; णाणिय-ज्ञानी; कहवि - क़िसी भी प्रकार; ण-नहीं; जोइ - हे जोगी !; बहुएं - बहुत अधिक; सलिल-पानी; विरोलियइं- विलोने से ; करु - हाथ; चोप्पडा-चुपड़ा, चिकना; ण होइ - नहीं होता है।
1. अ दयाविहूणउ; क, द, स दयाविहीणउ; ब दयाविहुणउ; 2. अ णाणी; क, द, ब, स णाणिय; 3. अ अकहि मण जो; क कहिं मि; द, स कह विण; ब कह मि ण; 4. अ, क, द, स बहुएं; ब बहुयइं; 5. अ विरोलीयइ; क, द, स विरोलियई; ब विरालियइ; 6. अ, क, द, स करु; ब कर; 7. अ चोपडा; क, द, स चोप्पडा; ब चिक्कणो ।
दोहा : 177