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भावार्थ-मुनिश्री योगीन्दुदेव का कथन है कि जो कर्मजनित रागादि भाव और शरीरादि पर वस्तु हैं, वे चेतन द्रव्य न होने से निश्चय ही जीव से भिन्न हैं। शरीरादि इसलिए भी आत्मा से भिन्न हैं कि ये सब कर्म के उदय से उत्पन्न हुए हैं। आत्मा का स्वभाव निर्मल ज्ञान-दर्शनमयी है। इसलिए जिसने पर द्रव्यों के संयोग का तथा . संयोगीबुद्धि का त्याग कर दिया है, ऐसे साधु-सन्तों को निज शुद्धात्मस्वभाव का चिन्तन कर शुद्धात्मा का ध्यान करना चाहिए। यही नहीं, भले ही यह शरीर छिदे तो छिद जाय, दो टुकड़ों हो जायें, छेद सहित हो जाए तथा नाश को प्राप्त हो जाए, तो भी उनको भय, खेद नहीं करना चाहिए। जो शरीर का छेदन-भेदन होने पर भी राग-द्वेषादि विकल्प नहीं करता है व निर्विकल्प होता हुआ निज शुद्धात्मा के ध्यान में लीन रहता है, वही परमसुख को प्राप्त करता है। (परमात्मप्रकाश, 1, 72-73) स्वामी कार्तिकेय कहते हैं कि हे भव्यात्मा! तू जीव को शरीर से भित्र सब प्रकार से उद्यमकर आत्मा को जान। जिस जीवद्रव्य के जान लेने पर शेष सभी परद्रव्य क्षण मात्र में त्यागने योग्य हो जाते हैं। (कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गा. 79)
श्रीतारण स्वामी कहते हैं कि जहाँ जिनेन्द्र रूपी सूर्य का दर्शन है, वहीं निजात्माका दर्शन है। क्योंकि अपनी आत्मा भी स्वभाव से जिनेन्द्र सूर्य के समान है। श्रीजिनका स्वभाव वही यथार्थ आत्मस्वभाव है, वही प्रकाशित रत्नत्रयमयी भाव है, वही वीतराग, आत्मा का स्वभाव, स्वात्मरमण रूप है। उसी की सहायता से आकाश के समान अनन्तज्ञानधारी अर्हन्त पद प्रकट होता है। (ममलपाहुड भा. 1,. पृ. 205)
पोत्था' पढएं मोक्खु कह मणु वि असुद्धउ जासु। वहयारउ लुद्धउ णवइ मूलट्ठिउ हरिणासु ॥147॥
शब्दार्थ-पोत्था-पोथा, शास्त्र; पढएं-पढ़ने से; मोक्खु-मोक्ष; कहं-कहाँ; मणु वि-मन भी; असुद्धउ-अशुद्ध (है); जासु-जिसका; वहयारउ-वधकारक; लुद्धउ-लुब्धक, शिकारी; णवइ-झुकता है; मूलट्ठिउ-मूल स्थित; हरिणासु-हिरनों (के लिए)।
अर्थ-जिसका मन अशुद्ध है, उसके शास्त्र पढ़ने से कहीं मोक्ष हो सकता है? नहीं। वध करने वाले शिकारी को भी हिरन के सामने झुकना पड़ता है। इसी प्रकार विनय भाव पूर्वक ही मोक्ष का मार्ग प्रशस्त होता है।
1. अ, क, द, स पोत्था; ब पोत्थय; 2. अ पणिं; क, द पढणिं; व पढणो; स पढएं; 3. अ, क, द, स कह; ब णवि; 4. अ बहुयारउ; क, द, स बहयारउ; व वहयारउ।
176 : पाहुडदोहा