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________________ अनुभव होना ही आत्मानुभव है। भगवान् आत्मा के अनुभवगोचर होने पर नयों के विकल्प भी इन्द्रजाल के समान क्षण भर में अदृश्य को प्राप्त हो जाते हैं। अतः आत्मानुभूति का काल निर्विकल्प ही होता है। आचार्य अमृतचन्द्र अपने अनुभव से स्पष्ट शब्दों में कहते हैं अलमलमतिजल्पैदुर्विकल्पैरनल्पैरयमिह परमार्थश्चेत्यतां नित्यमेकः। स्वरसविसरपूर्णज्ञानविस्फूर्तिमात्रा न्न खलु समयसारादुत्तरं किञ्चिदस्ति ॥-समयसारकलश, 244 अर्थात् हे भव्य! तुझे अन्य व्यर्थ का कोलाहल करने से क्या लाभ है? बहुत कथन करने और बहुत दुर्विकल्पों को अब रहने दो। इस एक मात्र परमार्थ (शुद्धात्मा) का ही निरन्तर अनुभव करो। क्योंकि निजरस के प्रसार से भरपूर पूर्ण ज्ञान के स्फुरायमान होने से वास्तव में परमात्मा (समयसार) से बढ़कर कोई सर्वोत्कृष्ट नहीं संक्षेप में सार यही है कि विकल्प-जाल ही आत्मा के दुःख का मूल कारण है, इसलिए उससे निवृत्त होना आवश्यक है। आचार्य पूज्यपाद के शब्दों में यदन्तर्जल्पसंपृक्तमुत्प्रेक्षाजालमात्मनः। मूलं दुःखस्य तन्नाशे शिष्टमिष्टं परं पदम् ॥ समाधितन्त्र, 85 अर्थात् अन्तरंग में विविध प्रकार का कल्पनाओं का जाल ही आत्मा के दुःख का मूल कारण है। अतः उसके नष्ट होने पर ही परमपद की प्राप्ति होती है। कि बहुएं' अडवड वडिणा' देह ण अप्पा होइ। देहहं भिण्णउ णाणमउ सो तुहु अप्पा जोइ ॥146॥ शब्दार्थ-किं-क्या (लाभ); बहुएं-बहुत (से); अडवड-अटपटा; वडिणा-बड़बड़ाने से; देह-शरीर; ण-नहीं; अप्पा-आत्मा; होई-होता है; देहहं-देह से; भिण्णउ-भिन्न; णाणमउ-ज्ञानमय; सो-वह; तुहुं-तुम; अप्पा-आत्मा; जोइ-हे जोगी! ___ अर्थ-बहुत अधिक अटपटा बड़बड़ाने से क्या लाभ? इतना ही समझना है · कि देह से ज्ञान स्वरूपी आत्मा भिन्न है और हे जोगी! वही तुम हो। 1. अ, क, द, स बहुएं; व बहुए; 2. अ वडिणा; क, द वडिण; व वडिणूः स वडिणउ; 3. अ, स भिण्णउं; क, द, व भिण्णउ; 4. अ, स णाणमउं; क, द, बणाणमऊ; 5. अ, ब, स तुहु; क, द, तुहूं। पाहुडदोहा : 175
SR No.090321
Book TitlePahud Doha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages264
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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