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अर्थ-बिना नाद के जो अक्षर उत्पन्न होता है अर्थात् कोलाहल हुए बिना जो अक्षय स्वरूप प्रकट होता है, वह ज्ञानस्वरूप आत्मा ही है। अतः कोई अज्ञान भाव नहीं करना चाहिए। इतना ही चित्त में लिखकर मन में धारण कर और निश्चिन्त होकर पाँव पसार कर अपने में विश्राम करना योग्य है।
भावार्थ-यह लोक चारों ओर से भीतर-बाहर तरह-तरह के कोलाहलों से व्याप्त है। बाहर का कोलाहल तो सुनने में आता है, लेकिन प्रति समय प्राणी मात्र के भीतर कोलाहल हो रहा है, यह सुनने में नहीं आता। वास्तव में भीतर का कोलाहल बाहर से भी अधिक है। लेकिन मनुष्य उस पर ध्यान नहीं देता। विश्व में सबसे अधिक कोलाहल नाटक, सिनेमा आदि में होता है, जहाँ पर नाच-गाना होता है। सभी नाटकों में मनुष्य जीवन की नकल होती है। लेकिन संसार में प्रतिक्षण नाटक चल रहा है, उसे न तो कोई सुनता है और न समझता है। यह नाटक अज्ञानता का है। यदि बौद्धिक प्राणी में अविवेक न हो तो अज्ञानता का नाटक नहीं खेला जा सकता है। इस नाटक में मुख्य रूप से दो तरह के खेल दिखाये जाते हैं-पाप और पुण्य। इसमें मोह नाचता है और अनेक तरह के हाव-भावों का प्रदर्शन करता है। वास्तव में रूप, रस, गन्ध युक्त वर्णादिमान पुद्गल ही नाचता है। अभेद ज्ञान में पुद्गल ही अनेक प्रकार का दिखाई देता है, जीव तो एक ही प्रकार का है। (समयसारकलश, 44)
संसार की रचना का कारण विकल्प-जाल है। कहा भी है- '
"विकल्पो जीवानां भवति बहुधा संसृतिकरः” अर्थात् जीव का विकल्प ही संसार का कारण है। (नियमसारकलश, 267)
विकल्प तरह-तरह के होते हैं, इसलिए कर्म भी अनेक प्रकार का होता है। आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने 'कोलाहल' के लिए 'जप्प' का शब्द का प्रयोग किया है जो 'जल्प' का पर्यायवाची है। इसमें सभी प्रकार के प्रशस्त, अप्रशस्त विकल्प-जाल का समावेश हो जाता है। अतः 'कोलाहल' से यहाँ अभिप्राय संकल्प-विकल्पों से है। (नियमसार, गा. 150 तथा संस्कृत टीका)
यथार्थ में यह समाधि की दशा की ओर संकेत है। जैन योगी भीतर-बाहर का नाद या अनहद (बिना बजाये) नाद नहीं सुनते। निज शुद्धात्मा के आश्रय से उत्पन्न आत्म-ज्ञान से हठयोग की क्रियाओं से विरत होकर आत्म-स्वभाव में विश्रान्ति करते हैं; जहाँ शुभ-अशुभ भावों की तरंग नहीं उठती है, वहाँ निर्विकल्प समाधि की दशा होती है। चैतन्य मूर्ति भगवान् आत्मा में जहाँ एकाग्र होकर जीव स्थिरता को प्राप्त होता है, वहीं समस्त विकल्प विलीन हो जाते हैं। चैतन्य ज्योति के जाग्रत होने पर जहाँ श्रद्धा और ज्ञान में यह अविचल अनुभूति प्रकट होती है कि मैं तो चित्स्वरूप परमात्मा हूँ, उसी समय सभी विकल्प दूर भाग जाते हैं। वस्तुतः ज्ञान का ज्ञान रूप
174 : पाहुडदोहा