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जहाँ पर वस्तु का स्वरूप ज्ञान में, पहचान में और अनुभव में आ जाता है, वह जैसी की तैसी भासित होने लगती है, वहाँ पर सन्देह विपरीत, भेद तथा मोहबुद्धि से अन्धश्रद्धापूर्वक मान्यता स्थापित नहीं होती है। हमें किसी वस्तु, मत, विचारधारा या काम के बारे में हित-अहित का निर्णय कर लेना चाहिए। यह तभी हो सकता है जब मोह या स्वार्थ से किसी को सर्वथा वैसा नहीं समझें। क्योंकि अलग-अलग परिस्थितियों में एक ही वस्त भिन्न-भिन्न रूपों में हमारे सामने आती है।
जिसके द्वारा यह जीव मोहित होता है उसे 'मोह' कहते हैं। 'मोह' एक प्रकार का बुद्धि का नशा है। इसलिए मोह के होने पर यह अपने आपको भूल जाता है, हित-अहित का विवेक नहीं होता। मोह में अपनी सुधि-बुधि खो देता है। इसलिए जो व्यक्ति धर्म को अपने जीवन में उतारना चाहता है, उसे सबसे पहले मोह को जड़ से उखाड़ देना चाहिए। कहा भी है
___मोह महामद पियो अनादि, भूल आपको भरमत वादि।-छहढाला
सब कर्मों में मोहनीय की प्रधानता है। सम्पूर्ण संसार मोह के अधीन है। इसलिए इसे जीतने का पुरुषार्थ करना चाहिए।
अणहउ' अक्खरु जं उप्पज्जई। अणु वि किं पि अण्णाण ण किज्जइ ॥ आयई चित्ति लिहि मणु धारिवि।
सोउ' णिचिंतिउ पाउ° पसारिवि ॥145॥ शब्दार्थ-अणहउ-अनहद; अक्खरु-अक्षर; जं-जो; उप्पज्जइ-उत्पन्न होता है; अणु वि-अणु (मात्र) भी; किंपि-कोई भी; अण्णाण-अज्ञान; ण किज्जइ-नहीं किया जाता है; आयई-इतना; चित्ति-चित्त में; लिहि-लिखकर; मणु-मन (में) धारिवि-धारणकर; सोउ-सोवे; णिचिंतिउ-निश्चिन्त; पाउ-पैर; पसारिवि-फैलाकर।। ____ अर्थ-बिना नाद के जो अक्षर उत्पन्न होता है अर्थात् कोलाहल हुए बिना जो अक्षय स्वरूप प्रकट होता है, वह ज्ञानस्वरूप आत्मा ही है। अतः कोई अज्ञान भाव नहीं करना चाहिए। 1. अ, क, द अवधउ; ब अविधउ; स अणहउ; 2. अ उपज़इए; क, द, ब, स उप्पज्जइ; 3 अ अणाउ; क, द, ब अण्णाउ; स अण्णाण; 4. अ आयाइ; क, द आयइं; ब आविलि; स आयइ; 5. अ चित्ति, क, द, स चित्तिं; ब चित्ते; 6. अ, क मणि; ब, स मण; द मणु; 7. अ, क, द सोउ; ब, स सो; 8. अ, क, द, स णिचिंतिउ; ब णिच्चंतु; 9. अ, द पाउ; क, स पाय; व पाए; 10. अ पसारवि; क, द, ब, स पसारिवि।
पाहुडदोहा : 173