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को 'भाव' कहते हैं। गुण और पर्याय दोनों भाव रूप हैं। चेतन के परिणाम को भी 'भाव' कहते हैं। चित्त का विकार भी भाव है। जिनागम में सामान्यतः 'विभाव' को 'भाव' कहा गया है। इसलिए राग, द्वेष, मोह सभी भाव हैं, लेकिन ये जीव के असली भाव नहीं हैं। जीव का वास्तविक भाव तो चैतन्य स्वभाव है। अतः शुद्ध चैतन्य शुद्ध भाव है। भाव द्रव्य में होता है। बिना भाव के द्रव्य और द्रव्य के बिना कोई भाव नहीं होता। क्योंकि गुणी के बिना कोई गुण नहीं होता या वह रहता नहीं है।
जीवों में पाँच भाव पाये जाते हैं। वे पाँच भाव हैं-औदयिक, औपशमिक, क्षायोपशमिक, क्षायिक और पारिणामिक। यदि औदयिक भाव न माना जाए, तो कर्मबन्ध कैसे होता है, यह सिद्ध नहीं हो सकता और औपशमिक भाव न माना जाए, तो पुरुषार्थ और धर्म प्रकट करने की विधि नहीं बताई जा सकती है। जिनागम में कहा गया है
ओदइया बंधयरा उवसम-खय-मिस्सया य मोक्खयरा।
भावो दु पारिणामिओ करणोहयवज्जियो होदि ॥धवला पु. 7, गा. 3 अर्थात्-औदयिक भाव बन्ध करने वाले हैं, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोप शमिक भाव मोक्ष के कारण हैं तथा पारिणामिक भाव बन्ध और मोक्ष दोनों के कारण से रहित है।
गहिलउ गहिलउ जणु भणइ गहिलउ म करि खोहु। सिद्धमहापुरि पइसरहु' उप्पाडेविणु मोहु ॥144॥
शब्दार्थ-गहिलउ-हठीला; गहिलउ-हठीला; जणु-जन; भणइ-कहता है; गहिलउ-हठी; मं-मत; करि-करो; खोहु-क्षोभ; सिद्ध महापुरि-सिद्ध महापुरी में; पइसरह-प्रवेश करो; उप्पाडेविणु-उखाड़कर; मोह-मोह (को)।
अर्थ-हठी! लोगों के "हठीला, हठीला” कहने से तुम क्षोभ को मत प्राप्त होओ। तुम्हें तो मोह को उखाड़कर सिद्धपुरी में प्रवेश करना चाहिए।
भावार्थ-जहाँ आग्रह है वहाँ हठ है और जो हठ है वह पक्षपातपूर्ण है। मनुष्य के विचार आज पक्षपात से रहित वस्तुवादी स्वतन्त्र नहीं हैं। जहाँ वैचारिक स्वतन्त्रता नहीं है, वहाँ व्यक्ति किसी आग्रह या हठ से मिथ्या मान्यता का पोषण करता है। इसमें विवाद हो सकता है कि क्या मिथ्या है, क्या सम्यक् है? किन्तु इसमें विवाद को अवकाश नहीं है कि जो वस्तु का जैसा स्वरूप है, उसे वास्तव में वैसा मानना चाहिए। यही वस्तुवाद है।
1. अ, क, द, स मं; ब म; 2. अ, क पइसरहो; द पइसरइ; ब, स पइसरह।
172 : पाहुडदोहा