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तित्यहिं देवलि देउ णवि इम सुइकेवलि-वुत्तु।
देहा-देवलि देउ जिणु एहउ जाणि णिरुत्तु ॥42॥ अर्थात-श्रुतकेवली ने यह कहा है कि तीर्थों में, देवालयों में देव नहीं है, जिनदेव तो देह रूपी देवालय में विराजमान हैं-यह निश्चित समझो। यही नहीं, हे मूढ़! देव किसी देवालय में विराजमान नहीं है। इसी प्रकार किसी पत्थर, लेप अथवा चित्र में भी देव विराजमान नहीं है। जिनदेव तो देह रूपी मन्दिर में रहते हैं, इस बात को तू शान्त चित्त से समझ। (वही, दोहा 44).
___मुनि योगन्दुदेव कहते हैं कि प्रत्येक तीर्थ की यात्रा करने से भी मोहित (मूढ़) प्राणी को मुक्ति नहीं होती है। क्योंकि जो आत्मज्ञान से रहित हैं, वे मुनीश्वर नहीं हैं; संसारी हैं। मुनिवर तो वे हैं जो सभी विकल्प-जाल से रहित होकर अपने स्वरूप में रमते हैं और वे ही मोक्ष पाते हैं। जिससे संसार पार (तरा) किया जाये वह तीर्थ है। वास्तव में तीर्थ तो अर्हन्त, वीतराग, सर्वज्ञ हैं। उनके उपदेश के समान अन्य कोई तीर्थ नहीं है। निश्चय से निज शुद्धात्मतत्त्व के ध्यान के समान दूसरा कोई तीर्थ नहीं है। व्यवहार में तीर्थंकर परमदेवादि के गुणस्मरण के कारण मुख्यता से जो शुभ बन्ध के कारण हैं, ऐसे कैलास, सम्मेदशिखर आदि निर्वाणस्थान हैं। वे व्यवहार से तीर्थ कहे जाते हैं। लेकिन जो तीर्थ स्थानों की यात्रा करे और निज तीर्थ का श्रद्धान, ज्ञान और आचरण न करे, वह अज्ञानी है।
ता' संकप्पवियप्पा कम्मं अकुणंतु सुहासुहजणयं । अप्पसरूवासिद्धी' जाम ण' हियए परिफुरइ ॥143॥
शब्दार्थ-ता-तब (तक); संकप्पवियप्पा-संकल्प-विकल्प; कम्म-कर्म को; अकुणंतु-नहीं करते हुए; सुहासुहजणयं-शुभ-अशुभ भावों (को) उत्पन्न करने वाले (जनक); अप्प सरूवसिद्धी-आत्मस्वरूप (की) सिद्धि; जाम ण-जब (तक) नहीं; हियए-हृदय में; परिफुरइ-स्फुरायमान होती है।
अर्थ-बाहर में कार्य नहीं करते हुए भी शुभ तथा अशुभ भावों को उत्पन्न करने वाले संकल्प-विकल्प तब तक उठते रहते हैं, जब तक अन्तरंग में आत्मस्वरूप
की सिद्धि स्फुरायमान नहीं होती। . भावार्थ-'भाव' शब्द के कई अर्थ हैं। होना मात्र भाव है। द्रव्य के परिणाम
1. अ, क, ब, स ता; द प्रति में यह दोहा नहीं है; 2. अ, ब संकप्पवियप्पं; क, स संकप्पवियप्पा; 3. अ, ब, स, च कुणंति; क अकुणंतु; 4. अ असुहसुहजणयं क सुहसुहजणयं; स सुहासुहजणयं ब असुहसुहजणअं; 5. अ अप्पसरुवामझे क, स अप्पसरूवासिद्धी; ब अप्पसरूव; 6. अ, क जाम ण; ब, स जाम ण हिअए।
पाहुडदोहा : 171