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एक हो जाता है। इसलिए ज्ञानी को चारों ओर भगवान् आत्मा ही लक्षित होता है। मुनि रामसिंह के शब्दों में
अग्गइं पच्छई दहदिहहिं जहिं जोवउं तहिं सोइ । ता महु फिट्टिय भंतडी अवसु ण पुच्छइ कोइ ॥दोहापाहुड, 176
अर्थात् मेरी भ्रान्ति मिट जाने पर “जहाँ देखता हूँ, उधर तू ही तू है।” अपने में और बाहर में सर्वज्ञ भगवान् आत्मा है। यही नहीं, हे जिनवर! तब तक आपको नमस्कार करता रहूँगा, जब तक देहस्थित आपको जान-पहचान नहीं लिया है। पहचान होने पर कौन किसको नमस्कार करे? क्योंकि दोनों समान स्वरूप वाले हैं। (दो. 142)
रे जीव! जिनवर में मन को स्थिर कर। जिसने एक जिन को जान लिया, उसने अनन्त देवों को जान लिया। (दो. 59) क्योंकि उस एक की ही भाँति अनन्त-अनन्त आत्माएँ हैं। इसी बात को इन शब्दों में कहा गया है-"तिहुवणि दीसइ देह जिणु जिणवरु तिहुवणु एउ” अर्थात् तीनों लोकों में एक जिनवर देव दृष्टिगोचर होते हैं और तीनों लोक उन जिनदेव में प्रतिबिम्बित होते हैं। उनमें कोई भेद नहीं करना चाहिए। (दो. 40) वास्तव में जो उसका अनुभव करता है, वही पूर्ण रूप से जानता है। पूछने वालों को तृप्ति कौन दे सकता है? (दो. 166)
. ज्ञानमय आत्मा को छोड़कर सभी तरह के भाव, इन्द्रियों के विषय, राग-द्वेष, मोह आदि सब कर्मकृत हैं। भीतर-बाहर में चिन्मात्र के सिवाय सभी कर्म से उत्पन्न होने वाला है। उसमें आत्मा का कुछ भी नहीं है। अन्तरंग के परिग्रह (आसक्ति, ममत्व, राग बुद्धि) के त्याग के बिना बाहर का त्याग कार्यकारी नहीं है। इसलिए कहा है कि नग्नत्व का क्या गर्व करना (दो. 155); हे मूंड़ मुड़ाने वालों में श्रेष्ठ मुण्डी! तुमने सिर तो मुँडाया, लेकिन चित्त को नहीं मोड़ा। जिसने चित्त का मुण्डन कर लिया, उसने संसार को खण्डित कर दिया।' (दो. 136).
श्रमण संस्कृति का दूसरा नाम मुण्डक संस्कृति भी है। मुण्डक अर्थात् जो केशों (अपने सिर के बालों) को हाथों से लुंचित कर मुण्डित होता है, यथाजात शिशु की भाँति नग्न मुद्रा धारण करता है, सूक्ष्म जीवों की रक्षा के निमित्त स्वयं पतित मयूर-पिच्छों से निर्मित पीछी रखता है एवं अहिंसा आदि महाव्रतों का पालन करता है, वह श्रमण मुण्डक कहलाता है।
. आत्मा ज्ञान-दर्शन स्वभावी चैतन्य मात्र है। आत्मा ज्ञानमय चेतन भाव है, लेकिन कर्म जड़ है। आत्मा में जानने, देखने की शक्ति है, किन्तु कर्म जानता-देखता नहीं है। इसलिए ज्ञानमय भाव को छोड़कर राग-द्वेष, मोह आदि भाव पराये हैं।
1. "न वि मण्डएण समणो"-उत्तराध्ययन सत्र 25. 31
मुण्डी नग्नो मयूराणां पिच्छधारी महाव्रतः-स्कन्धपुराण 59, 36 विष्णुपुराण, 3, 18 तथा-पद्मपुराण 13, 33
प्रस्तावना: 15