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तब तक विषय-भोगों में फँसा हुआ है और आत्मानुभव के आनन्द से वंचित है। (दो. 46)
__ अन्य रहस्यवादी कवियों की भाँति कविवर ने 'पाहुडदोहा' में बाहरी आडम्बर का खण्डन करते हुए यह वर्णन किया है कि व्यक्ति आध्यात्मिक ज्ञान के बिना त्रिकाली ध्रुव आत्मतत्त्व को नहीं समझ सकता। (दो. 26) उन्होंने अनेक तरह के शास्त्रों के अभ्यास को निरर्थक माना है। (दो. 125) वास्तव में तो अनक्षर होने का ही उपदेश दिया गया है। इसी प्रकार से तीर्थ-भ्रमण का भी निषेध किया गया है। (दो. 163-64, 179) यही नहीं, जो परमात्मा को तीर्थों और मन्दिरों में खोजता है, उसे अज्ञानी कहा है। (दो. 53, 86-87) यथार्थ में परमात्मा मन्दिर में नहीं देह रूपी देवालय में प्रतिष्ठित है। (दो. 162) मलिन चित्त से तप नहीं होता। (दो. 62) इसी तरह शरीर को आत्मा मानने का सशक्त खण्डन किया गया है। शरीर भिन्न है, आत्मा भिन्न है। क्योंकि शरीर के विशेषण आत्मा में नहीं हैं। आत्मा जानने, देखने की शक्ति वाला परम अविनाशी तत्त्व है, लेकिन शरीर विनाशीक है। वह जानतादेखता नहीं है। शरीर में रूप, रस, गन्ध, स्पर्श विशेषण पाए जाते हैं, लेकिन ये आत्मा में नहीं होते। अतः जो शरीर से भिन्न ज्ञान-दर्शन स्वरूपी निज आत्मा को नहीं जानता-देखता है, उसे अन्धा कहा गया है। वर्ण्य-विषय_ 'पाहुडदोहा' का मूल वर्ण्य-विषय है-आत्मा और आत्मानुभव। आत्मा को ही केन्द्र में रखकर सम्पूर्ण वर्णन किया गया है। दोहों के विषय को स्पष्ट करते हुए डॉ. हीरालाल जैन लिखते हैं!-“आत्मा की शुद्धि के लिए न तीर्थ-जल की आवश्यकता है, न नाना प्रकार का वेष धारण करने की। आवश्यकता है-केवल राग और द्वेष की प्रवृत्तियों को रोककर, आत्मानुभव की। मूंड़ मुड़ाने से, केशलोंच करने से या नग्न होने से ही कोई सच्चा योगी और मुनि नहीं कहा जा सकता। योगी तो तभी होगा जब समस्त अन्तरंग परिग्रह छूट जावें और मन आत्मध्यान में लीन हो जाए।...आत्मज्ञान से हीन क्रियाकाण्ड कणरहित भुस और पयाल कूटने के समान निष्फल है। ऐसे व्यक्ति को न इन्द्रियसुख ही मिलता है और न मोक्षमार्ग।"
कवि ने स्पष्ट रूप से एक परम सत्ता का वर्णन किया है। यथार्थ में जब तक चित्त परमात्म स्वरूप निज स्वभाव में विशेष रूप से लीन (विलीन) नहीं हुआ है, तब तक आत्मा-परमात्मा का भेद है। भेद भ्रान्ति के कारण है। (दो. 170) इसलिए अध्यात्म ग्रन्थों में भ्रम को महान् रोग कहा गया है। भ्रम के दूर होते ही दो मिटकर
1. पाहुडदोहा, भूमिका, पृ. 15 से उद्धृत, कारंजा, 1933 संस्करण
14 : पाहुडदोहा