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________________ पुण्णेण होइ विहवो विहवेण मओ मएण मइ-मोहो। मई-मोहेण य णरयं ते पुण्णं अम्ह मा होउ ॥139॥ शब्दार्थ-पुण्णेण-पुण्य से; होइ-होता है; विहवो-वैभव; विहवेणवैभव से; मओ-मद, अभिमान-मएण-मद से; मइमोहो-मतिभ्रम; मइमोहेण-मति-भ्रम से; य-और; णरयं-नरक (गति होती है); तं-वह; पुण्णं-पुण्य; अम्ह-हमें; मा होउ-मत होवे। अर्थ-पुण्य से वैभव की प्राप्ति होती है और वैभव से अभिमान तथा मान से बुद्धि-भ्रम होता है। बुद्धि के विभ्रम से पाप और पाप से नरक गति मिलती है। इसलिए ऐसा पुण्य हमारे लिए न होवे।। भावार्थ-यह दोहा ‘परमात्मप्रकाश' (2, 60) में भी है। सामान्य रूप से पुण्य बुरा नहीं, भला है। क्योंकि जो भौतिक सुख प्राप्ति के प्रयोजन से निरन्तर पुण्य के फल की चाह करता है, उसकी बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है और वह पुण्य से भी पाप कमाता है। लेकिन सम्यग्दृष्टि का पुण्य परम्परा से मोक्ष का वास्तविक कारण है। ब्रह्मदेवसूरिका कथन है कि जो सम्यक्त्वादि गुण सहित भरत, सगर, राम, पाण्डवादि हैं, उन को पुण्य का बन्ध अभिमान उत्पन्न नहीं करता, इसलिए वह परम्परा से मोक्ष का कारण है। आचार्य गुणभद्र भी यही कहते हैं कि पूर्व समय में ऐसे सत्पुरुष हो गये हैं जिनके वचन में सत्य, बुद्धि में शास्त्र, मन में दया, पराक्रम रूप भुजाओं में शूरवीरता, याचकों को बराबर लक्ष्मी का दान, मोक्षमार्ग में प्रवृत्ति करनेवाले हुए, उनके किसी गुण का उन्हें अहंकार नहीं हुआ, किन्तु इस पंचमकाल में जिनके लेश मात्र भी गुण नहीं है, वे भी उद्धत हो रहे हैं। इससे स्पष्ट है कि जो अविवेकी, अज्ञानी हैं, उनका पुण्य कमाना भी पाप का ही कारण है। आचार्य कुन्दकुन्द के शब्दों में मिच्छतं अण्णाणं पावं पुण्णं चएवि तिविहेण। मोणव्वएण जोई जोयत्यो जोयए अप्पा ॥28॥ ___अर्थात्-मिथ्यात्व, अज्ञान, पुण्य-पाप को मन, वचन, काय द्वारा त्याग कर मौन व्रत के साथ योगी ध्यान में लीन होकर अपनी शुद्धात्मा का अनुभव करे। 1. अ, क, द विहओ; ब, स विहवो; 2. अ, द मइ; ब, स मई क मय; 3. अ, द मइ ब, स मई; क मय। पाहुडदोहा : 167
SR No.090321
Book TitlePahud Doha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages264
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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