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ग्यानी मूढ़ करम करत दीसैं एकसे पै, परिनामभेद न्यारो न्यारो फल देतु है ॥
-समयसार, कर्ता-कर्म., 23
गमणागमणविवज्जियउ जो तइलोयपहाणु। गंगा गरुवइ देउ किय सो सण्णाणु अयाणु' ॥138॥
शब्दार्थ-गमणागमणविवज्जियउ-गमनागमन (से) रहित (विवर्जित); जो; तइलोयपहाणु-तीन लोक (में) प्रधान (वीतराग है); गंगा गरुवइ-गौरव (युक्त, महान्) गंगा (नदी को); देउ-देव; किय–किया, माना; सो-वह; सण्णाणु-ज्ञान वालों (का); अयाणु-अज्ञान (है)।
अर्थ-जो गमनागमन से रहित (वीतरागी) तथा तीनों लोकों में प्रधान हैं, वह . देव हैं-यह सत्ज्ञान की बात है। लोक में लोग गंगा नदी में भी देव (की कल्पना करते हैं) मानते हैं, किन्तु वह तो अज्ञान है।
भावार्थ-वास्तव में बड़-पीपल आदि वृक्षों को, नदी को, जल, पवन, अग्नि को तथा अन्न को देव मानना देवमूढ़ता कही गई है। जो अपने से भी हीन हैं, जिनमें संयम नहीं पाया जाता है और जो विषय-कषाय, रागादि में आसक्त हैं या एक इन्द्रिय वाले हैं, वे पूज्य कैसे हो सकते हैं? वृक्ष, नदी, पवन, जल, अग्नि आदि जो प्रत्यक्ष एकेन्द्रिय हैं, उनकी पूजा कैसे हो सकती है? लेकिन मूढ़ता की बलिहारी है! अज्ञान से क्या नहीं होता है? वास्तविक सुख को छोड़कर शेष सभी होता है।
पं. सदासुखजी ने “रत्नकरण्डश्रावकाचार" की टीका में लोकमूढ़ता के अन्तर्गत पीपल पूजने का निषेध किया है। उनके ही शब्दों में "तथा ग्रहण में सूतक मानना, स्नान करना, चाण्डालादिक . दान देना, संक्रान्ति मानि दान देना, कुआ पूजना, पीपल पूजना, गाय कूँ पूजना, रुपया-मोहर कूँ पूजना, लक्ष्मी कूँ पूजना, मृतक पितर कूँ पूजना, छींक पूजना, मृतकनि के तृप्ति करने कूँ तर्पण करना, श्राद्ध करना, कुआ-बावड़ी, वापिका, तालाब, खुदावने में धर्म मानना, बाग लगावने में धर्म मानना, मृत्युंजय आदि के जप करावने तै अपनी मृत्यु का टल जाना मानना, ग्रहां का दान देने तैं अपने दुःख दूर होना मानना सो समस्त लोकमूढ़ता है।” (रत्नकरण्डश्रावकाचार, प्रथम अधिकार, पृ. 45)
1. अ, द गरुवइ क गुरुवइ ब, स गरुअइ; 2. अ, क, द, स देउ; व देव; 3. अ चिउ; क, द, ब, किउ; स किय; 4. अ, ब सयाणु; क, द, स अयाणु।
166 : पाहुडदोहा