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________________ अप्पु कहिज्जइ' काई तासु जो अच्छइ सव्वंगओ संते । पुण्ण-विसज्जणु काई तासु जो हलि इच्छइ परमत्थें ॥137॥ शब्दार्थ-अप्पु-आप (का); कहिज्जइ-कहा जाता है; काइं-क्या; तासु-उसका; जो; अच्छइ-है; सव्वंगओ संते-सर्वांग में होने पर; पुण्णु विसज्जणु-पुण्य (के) विसर्जन (से); काई-क्या; तासु-उसके; जो; हलि-अरे!; इच्छइ-इच्छा करता है; परमत्थे-परमार्थ (के होने की)। अर्थ-जो सम्पूर्ण शरीर में विद्यमान है, उस आप का क्या कहना है? हे सखि! जो परमार्थ चाहता है, उसके पुण्य-विसर्जन से क्या? लाभ तो आत्मा को प्राप्त करने से है। भावार्थ-सभी प्राणी करने करने की बात करते हैं। लेकिन असंख्यात आत्मप्रदेशों में स्थित आत्मा जानने-देखने के सिवाय क्या कर सकता है? प्रत्येक समय में आत्मा जानता देखता है। आत्मा स्वयं परमार्थ है। ज्ञान साधन से शुद्धात्मा की प्राप्ति ही सबसे बड़ा पुरुषार्थ है। परमार्थी व्यक्ति के लिए पुण्य-पाप बराबर हैं। अतः पुण्य के विसर्जन से भी आत्मिक लाभ नहीं है। वास्तव में पुण्य तो भूमिका के अनुसार सहज छूट जाता है। पुण्य छोड़ना महत्त्वपूर्ण नहीं है, किन्तु पुण्य की वांछा छूटना महत्त्वपूर्ण है। आचार्य जयसेन का कथन अत्यन्त स्पष्ट है कि “दान, पूजा, व्रत, शीलादि रूप, चित्त प्रसाद रूप परिणाम वह भाव पुण्य होने से और शुद्ध, बुद्ध, एक स्वभाव शुद्धात्मा से भिन्न होने से 'हेय' स्वरूप है।” (पंचास्तिकाय गा. 131-132 की टीका) यथार्थ में यह श्रद्धा की अपेक्षा कथन है। पण्डितप्रवर टोडरमल जी के शब्दों में “इस शुभोपयोग को बन्ध का ही कारण जानना, मोक्ष का कारण नहीं जानना; क्योंकि बन्ध और मोक्ष के तो प्रतिपक्षपना है। इसलिए एक ही भाव पुण्य-बन्ध का भी कारण हो और मोक्ष का भी कारण हो, ऐसा मानना भ्रम है। इसलिए व्रत-अव्रत दोनों विकल्परहित जहाँ परद्रव्य के ग्रहण-त्याग का कुछ प्रयोजन नहीं है-ऐसा उदासीन. वीतराग शुद्धोपयोग वही मोक्षमार्ग है।” (मोक्षमार्ग प्रकाशक, सातवाँ अधिकार, पृ. 255) पं. बनारसीदास के शब्दों में दया-दान पूजादिक विषय-कषायादिक, दोऊ कर्मबन्ध पै दुहूं को एक खेतु है। 1. अ, क, ब, स कहिज्जड द करिज्जइ; अ, स सव्वंग; द सव्वंगओ; क सव्वंगउ; ब सव्वंगु, 3. अ वसति; क संठिउ; द संतें; स संते; 4. अ पुणुः क, द स पुण्ण; व पुण्णु; 5. अ काइ; क, द, ब, स काई; 6. अ परमत्थे, क, द परमत्थे, व परमत्यु; स परमत्यं । पाहुडदोहा : 165
SR No.090321
Book TitlePahud Doha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages264
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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