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कासु समाहि करउ' को अंचउं छोपु - अछोपु भणिवि' को वंचउं हलि सहि कलहु केण सम्माणउं । जहिं जहिं जोवउं तहिं अप्पाणउं ॥ 140 ॥
शब्दार्थ - कासु - किसकी समाहि-समाधिः करउं- करूँ; को अंचउं - किसे पूजूँ ?; छोपु - अछोपु - स्पृश्य-अस्पृश्य (छूत-अछूत); भणिविकहकर; को वंचउं–किसे ठगूँ ?; हलि सहि - हे सखि !; कलहु-झगड़ा; केण-किससे (करूँ); सम्माणउं - सम्मान करूँ (किसका); जहिं जहिं-जहाँ-जहाँ; जोवउं—देखती हूँ, तहिं-वहीं; अप्पाणउं - आत्मा (भगवान् आत्मा दृष्टिगत होता है) ।
अर्थ - किसकी समाधि करूँ ? किसे पूजूँ ? स्पृश्य-अस्पृश्य कहकर किसे छोड़ दूँ? हे सखि ! किसके साथ झगड़ा मचाऊँ? किसका सम्मान करूँ? क्योंकि जहाँ-जहाँ देखती हूँ, वहाँ अपनी ही शुद्ध आत्मा दिखाई देती है । 'शुद्धात्मा या 'परमात्मा' कहो, एक ही है।
भावार्थ - उक्त पद में सर्वत्र एक ब्रह्म लक्षित होने से रहस्यवादी भावना है। 'कबीर ग्रन्थावली' में इस आशय का पद मिलता है । सन्त कबीर के शब्दों मेंव्यापक ब्रह्म सबनि में एकै, को पंडित को जोगी । राणा राव कवन सूँ कहिये, कवन वेद को रोगी ।
इनमें आप आप सबहिन में, आप आप सूँ खेले।
अर्थात - कौन पण्डित है, कौन योगी? किसको राजा-राव कहा जाए? किसे वैद्य और किसे रोगी कहा जाए? क्योंकि इन सब में व्यापक रूप से एक ब्रह्म व्याप्त है । इन सभी में ब्रह्म है और ब्रह्म स्वयं में क्रीड़ा कर रहा है
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मुनिश्री योगीन्द्रदेव के शब्दों में
बुज्झतहं परमत्थु जिय गुरु लहु अत्थि ण कोइ ।
जीवा सयल वि बंभु परु जेण वियाणइ सोइ ॥ - परमात्मप्रकाश 2, 94 अर्थात् - हे जीव ! परमार्थ के समझने वालों के लिए कोई जीव छोटा या बड़ा
1. अ, क, द करउं; ब करहु स करउ; 2. अ, क, द भणिवि; ब, स भणवि; 3. अ, क, द वंचउं; ब अंचउ; स वंचउ; 4. अ, क, द, ब हल; स हलि; 5. अ, ब, स कलहु; क, द कलह; 6. अ समाणउ; क, द सम्माणउं; ब, स सम्माणउ; 7. अ जोवउं तहि; क, द जोवउं तहिं; ब जोवउ तहि ।
168 : पाहु