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________________ अभिप्राय नहीं पहिचाना जाता। यह तो मान ले कि मैं जिन-वचनानुसार मानता हूँ, परन्तु भाव भासित हुए बिना अन्यथापना हो जाए। लोक में भी नौकर को किसी कार्य के लिए भेजते हैं, वहाँ यदि वह उस कार्य का भाव जानता हो तो कार्य को सुधारेगा, यदि भाव भासित नहीं होगा तो कहीं चूक ही जाएगा। इसलिए भाव भासित होने के अर्थ हेय-उपादेय तत्त्वों की परीक्षा अवश्य करना चाहिए। (मोक्षमार्ग प्रकाशक, अ. 7, पृ. 263) अरि जिय जिणवरि मणु ठवहि विसयकसाय चएहि । सिद्ध महापुरि पइसरहि दुक्खह' पाणिउ देहि ॥135॥ शब्दार्थ-अरि जिय-रे जीव!; जिणवरि-जिनवर में; मणु-मन; ठवहि-स्थापित करो; विसायकसाय चएहि-विषय-कषायों (को) त्यागिये; सिद्धमहापुरी-सिद्धों (की) महान नगरी (में); पइसरहि-प्रवेश करो; दुक्खह-दुःखों को; पाणिउ-जलांजलि; देहि-दो। __अर्थ-रे जीव! जिनवर में मन लगाकर विषय-कषायों का त्याग कर। अब दुःखों को जलांजलि देकर सिद्धपुरी में प्रवेश कर। भावार्थ-इस संसार में प्रत्येक जीव मुख्य रूप से संसार का ही कार्य करता है-विषयों का सेवन और रात-दिन कषाय का धन्धा करना। सभी तरह के दुःखों में भी यही है कि मन के माफिक विषय-कषायों के न होने से मन में प्रतिकूलता भासित होना। जहाँ इच्छाओं की अनुकूलता है, वहाँ सांसारिक सुख चाहने वाला जीव प्रतिकूलताओं को हटाने का प्रयत्न करता है और अनुकूल साधन जुटाता है। किन्तु सफलता-असफलता दोनों प्राप्त करता है। तब जीवन सुखी कैसे हो सकता है? इसका सबसे सरल उपाय है-जिनेन्द्र भगवान के चरणों में पूरी तरह से मन लगाना। इसलिए यहाँ पर यह कहा गया है कि जिनवर के चरणों में चित्त लगाने से प्राणी पाँचों इन्द्रियों के विषयों से हट सकता है। यदि आज भी जिनदेव की भक्ति में मन नहीं लगता है, तो फिर ऐसा शुभ अवसर कब मिल सकता है? वास्तव में दुःख प्राणी के स्वयं बनाए हुए हैं। मिथ्या कल्पना के कारण यह दुखी रहता है। इसलिए यह कथन है कि अब दुःखों को हमेशा के लिए छोड़कर सिद्धपुरी में पहुँचने के लिए मोक्ष-मार्ग में चलना प्रारम्भ कर देना चाहिए। इसके बिना जीवन की वास्तविक उन्नति नहीं हो सकती है। यदि मनुष्य जीवन का यह स्वर्णिम अवसर चला गया, तो फिर मिलना दुर्लभ ही है। 1. अ, क, द, स जिणवरि; व जिणवर; 2. अचएहिं; क, द चएहि; ब, स चएवि; 3. अ, क, द, व सिद्धि; स सिद्ध; 4. अ,क, द दुक्खह; ब, स दुक्खह; 5. अ, क, द देहि व, स पाणिउ। पाहुडदोहा : 163
SR No.090321
Book TitlePahud Doha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages264
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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