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रंजिउ-नहीं रंजायमान; भुवणयलि-भुवनतल में; सो-वह; जोइय-हे जोगी!; करि-करो; मित्तु-मित्र।
अर्थ-हे योगी! इस लोक में जिसका चित्त राग के कोलाहल में, छह रसों में तथा पाँच तरह के रूपों में आसक्त न हो, उसे अपना मित्र बना ले।
__ भावार्थ-यहाँ पर योगी को सम्बोधन करते हुए कहा गया है। जो योगी है वह ज्ञानी अवश्य होता है। क्योंकि भेद-विज्ञान के बिना तो सम्यग्दर्शन भी नहीं होता। अतः साधु की मुख्यता से वर्णन किया जाता है। आचार्य अमितगति का कथन है
ज्ञानी विषयसंगेऽपि विषयैर्नैव लिप्यते।
कनकं मलमध्येऽपि न मलैरुपलिप्यते ॥ योगसार, 4, 19 अर्थात-जो ज्ञानी है वह विषयों का संग होने पर भी उनसे लिप्त नहीं होता, ठीक उसी प्रकार जैसे मल के बीच में पड़ा हुआ सोना मल से लिप्त नहीं होता।
पं. जुगलकिशोर मुख्तार के शब्दों में “यहाँ जिस ज्ञानी का उल्लेख है, वह वही है जो नीरागी है। अध्यात्म भाषा में वह ज्ञानी ही नहीं माना जाता है जो राग में आसक्त है। ऐसे ज्ञानी योगी की विषयों का संग उपस्थित होने पर भी उनमें प्रवृत्ति नहीं होती, उसी प्रकार जिस प्रकार कि मल के मध्य में पड़ा होने पर भी शुद्ध सुवर्ण मल को ग्रहण नहीं करता। यद्यपि घर-गृहस्थी में रहते हुए ज्ञानी को विषयों का सेवन करना पड़ता है, किन्तु राग में ज्ञानी की एकत्व, स्वामित्व और आसक्त बुद्धि नहीं होती है। क्योंकि वह भीतर-बाहर में सदा एक, अकेला अपने आपका अनुभव करता है। आचार्य पूज्यपाद के शब्दों में
एकोऽहं निर्ममः शुद्धो ज्ञानी योगीन्द्रगोचरः।
बाह्याः संयोगजा भावाः मत्तः सर्वेऽपि सर्वथा ॥-इष्टापदेश, श्लोक 27 ... अर्थात्-ज्ञानी चिन्तन करता है कि मैं एक हूँ, अकेला हूँ, मेरा मात्र मैं हूँ, निर्मम हूँ। मेरे में ममता परिणाम नहीं है। मैं शुद्ध हूँ अर्थात् अपने द्रव्यत्व गुण से परिणमन करने वाला योगीन्द्रों के द्वारा गोचर हूँ। अन्य समस्त संयोगजन्य भाव मेरे से सर्वथा भिन्न हैं।
- व्यावहारिक प्रसंगों में भी मैं अकेला हूँ। सुख-दुःख, राग-द्वेष आदि भावों के साथ मैं अकेला ही हूँ। तरह-तरह के रूपों तथा भिन्न-भिन्न परिणमन होने पर भी आत्मा अपने एकत्व भाव को कभी नहीं छोड़ता। चेतन प्रत्येक अवस्था में चेतन रूप ही रहता है।
पाहुडदोहा : 161