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________________ अर्थ-सदा काल मोटे और बड़े पशुओं को सन्ताप पहुँचाने में तथा देहस्थित बुद्धि से सूने मठ में वसने से भी अपना कल्याण नहीं है (अर्थात् कल्याण तो मात्र निज शुद्धात्मा के अनुभव में ही है)। भावार्थ-आचार्य अमितगति का कथन अत्यन्त स्पष्ट है कि जो अपने चारित्र से भ्रष्ट हैं, वे चारों गतियों के दुःख सहते हैं। अपने चारित्र से कौन भ्रष्ट है? इसे समझाते हुए वे स्वयं कहते हैं यतः संपद्यते पुण्यं पापं वा परिणामतः। वर्तमानो यतस्तत्र भ्रष्टोऽस्ति स्वचरित्रतः ॥-योगसार, 3,32 ___ अर्थात्-क्योंकि शुभ, अशुभ परिणाम से पुण्य-पाप का जन्म होता है, इसलिए उस परिणाम को करने वाला आत्मा अपने चारित्र से भ्रष्ट होता है। : वास्तव में जब तक संकल्प-विकल्प रूप आचरण है, तब तक यह जीव शुभ भाव होने पर भी अपने चारित्र से भ्रष्ट है। क्योंकि आत्मा का वीतराग चारित्र ही वास्तविक है जो निर्विकल्प स्वरूपाचरण की अवस्था में होता है। जब शुभ भावों से अपना कल्याण नहीं है, तब अशुभ भावों से अपने कल्याण की कल्पना करना मिथ्या ही है। केवल बाहरी भेष धारण करने से अथवा सूने मठ, मन्दिर में रहने मात्र से आत्मा का कल्याण नहीं हो जाता। फिर, बड़े-बड़े प्राणियों का शोषण करके, उन पर जोर-दबाव डालकर उनकी सम्पत्ति हड़पने, लोभ-लालच देकर बोलियाँ बुलवाकर या अन्य प्रकार के मानसिक सन्ताप तथा शारीरिक पीड़ा पहुँचाते हुए बड़े पदों पर रहने भर से आत्मा का कल्याण नहीं हो सकता। सच पूछा जाए तो देवेन्द्रों का विषय-सुख भी दुःख ही है। क्योंकि इन्द्रियों के विषयों के सेवन से मिलने वाला सुख तृष्णा को बढ़ाने वाला है, संताप पहुँचाने वाला है और अनित्य किंवा क्षणिक है। आज तक विषय-भोगों के सेवन से किसी ने भी स्थायी तथा शाश्वत सुख प्राप्त नहीं किया है। यही नहीं, इनके सेवन से प्राणी प्रत्येक समय आकुल-व्याकुल रहता है। इस कारण विषय-भोगों की निन्दा की जाती है। रायवयल्लहिं छहरसहिं पंचहिं रूवहिं चित्तु। जासु ण रंजिउ भुवणयलि सो जोइय करि मित्तु ॥133॥ शब्दार्थ-रायवयल्लहिं-राग के कल-कल, कोलाहल में छहरसहिं-छह रसों में; पंचहिं रूवहि-पाँचों रूपों में; चित्तु-चित्त; जासु-जिस का; ण 1. अ रागवयल्लह; क, द रायवयल्लहिं; ब रागवयल्लइ; स रायवयल्लहिं; 2. अ, द, ब, स भुवणयलि; क भुवणयलु; 3. अ जोयइ; क, द, स जोइय; ब जोइ। 160 : पाहुडदोहा
SR No.090321
Book TitlePahud Doha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages264
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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