SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 161
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रत्येक मनुष्य राज्य, पद, धन-वैभव आदि से ही सुखी और उनके न होने पर दुखी नहीं होता। किन्तु देखा यह जाता है कि जिनके पास तीन खण्ड का राज्य है, वे एक छत्र राज्य-वैभव होने पर भी दुखी रहते हैं। इस दुःख का कारण मोह या मिथ्यात्व है। 'मोह' को दुःख का बीज कहा गया है। आचार्य अमितगति के शब्दों में इत्थं विज्ञाय यो मोहं दुःखबीजं विमुञ्चति। सोऽन्यद्रव्यपरित्यागी कुरुते कर्म-संवरम् ॥ योगसार अ.5, श्लोक 49 अर्थात-इस प्रकार मोह को दुःख का बीज जानकर जो उसे छोड़ता है, वह पर द्रव्य का त्यागी हुआ कर्मों का संवर करता है अर्थात् आते हुए कर्मों को रोक देता है। यथार्थ में मोह ही पर द्रव्यों के साथ अपना सम्बन्ध जोड़ता है। मोह के कारण ही यह अपने से सर्वथा भिन्न वस्तु को भी आप रूप मानता है और चित्र, फिल्म आदि में तरह-तरह के दृश्य देखकर उनसे अपना सम्बन्ध जोड़कर सुख-दुःखादि का अनुभव करता है। उनको पाने की अभिलाषा बनाने की इच्छा और उनके स्वामी बनने की आशा में यह चिन्तित, परेशान तथा दुखी रहता है। कल्पना में जिसका यह स्वामी बनता है, उसे अपने संयोग में बनाये रखना चाहता है, लेकिन उसके पास में बने रहना यह इसके अधीन न होकर कर्माधीन है। यदि इसके चाहे माफिक हर समय सब काम होने लगें, तो फिर 'कर्म' का कोई काम नहीं रह जाएगा। इसलिए यह सम्भव नहीं है कि मनुष्य जो सोचता है और जैसा चाहता है, हर काम वैसा ही हो। फिर भी, यह चाहता है और चाहे अनुसार होने पर सुखी होता है तथा उसे अपना किया हुआ कार्य मानता है। लेकिन जब मनके माफिक नहीं होता है, तब दुखी होता है। मा मुट्टा पसु गरुयडा सयल काल झंखाइ। णियदेहह वि वसंतयहं सुण्णा मढ सेवाइ ॥132॥ शब्दार्थ-मा-मत; मुट्टा पसु-मोटे पशुः गरुयडा-भारी; सयल काल-सदा काल; झंखाइ-सन्ताप करती है; णियदेहहं-अपने शरीर में; वि-भी (ही); वसंतयह-रहते हुए; सुण्णा-शून्य; मढ-मठ (की); सेवाइ-सेवा करते हो। 1. अ मुच्छा; क, द मुट्टा; ब मुद्धा; स मुच्छाँ; 2. अ, ब, स वसु; क, द पसु; 3. अ, क, द गरुवडा; ब, स गुरुवडा; 4. अ, क, स काल; 5. अ, ब संखाइ क, द, स झंखाइ; 6. अ णियदेहहि; क, द, स णियदेहह; ब णियदेहह; 7. अ, स सेवाइं; क, द सेवाइ; ब सेवाहि पाहुडदोहा : 159
SR No.090321
Book TitlePahud Doha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages264
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy