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________________ यही नहीं, चिन्तामणि रत्न सोचे हुए पदार्थ को, कल्पवृक्ष कल्पना में स्थित पदार्थ को देता है; परन्तु शुद्धात्माका ध्यान अचिन्तित और अकल्पित फल को प्रदान करता है। (वही, 7, 36) धर्म-ध्यान किसे होता है? यह समझाते हुए आचार्य कुन्दकुन्ददेव कहते हैं"भरहे दुस्समकाले धम्मज्झाणं हवेइ साहुस्स।”-मोक्षपाहुड, गा.76 अर्थात् भरतक्षेत्र में पंचमकाल में साधु, मुनिके सभी प्रकार का धर्मध्यान (चारों पाये) होता है। धर्मध्यान चौथे गुणस्थान से लेकर सातवें गुणस्थान तक जिनागम में कहा गया है। “तत्त्वार्थसूत्र" की सभी टीकाओं में इसका स्पष्ट उल्लेख है। अतः गृहस्थों के भी धर्मध्यान हो सकता है, लेकिन विशेष रूप से आत्मस्वभाव में स्थित मुनियों के ही होता है। छत्तु वि पाइ' सुगरुयडा सयलकालसंतावि। णियदेहडइ. वसंतयहं पाहण वाडि वहाई ॥131॥ शब्दार्थ-छत्तु वि-छत्र भी; पाइ–प्राप्त (कर); सुगरुयडा-बड़ा भारी; सयलकालसंतावि-सभी समय सन्तप्त (रहते हैं); णियदेहडइ-निज देह में; वसंतयह-वसते हुए; पाहण-पाषाण, पत्थर; वाडि-वाड़े में; वहाइ-लगवाता, बनवाता है। अर्थ-बड़े-बड़े लोग राज्य का छत्र पा कर भी सदा काल दुखी रहते हैं। अपने देह में वसने पर भी वाड़े में महल चिनवाता है। अज्ञानता के कारण यह लोभ तथा मोह के अनेक कार्य करता है। भावार्थ-वास्तव में कोई वस्तु इष्ट या अनिष्ट नहीं है। वह मोह ही है, जिसके वश कोई अमुक वस्तु किसी समय इष्ट मान ली जाती है और किसी समय वही वस्तु अनिष्ट हो जाती है। मोह अपने संग से जीव को मलिन करता है। जीव मोहके द्वारा अपनी संगति से ठीक वैसे ही मलिन किया जाता है, जिस प्रकार दोपहरिया लाल फूल के सम्बन्ध से अमल धवल स्फटिक मणि लाल रंग की हो जाती 1. अ पाव; क, द पाइ; ब, स पावइ; 2. अ, क, द सुगुरुवडा; ब, स सुगुरवडा; 3. अ सयलकालसंखाइं; क, स सयलकाल संतावि; द सयलकला संतावि; ब सयलकलासंभावि; 4. अणियदेहडइं; क, द, स णियदेहडइ; ब णियदेहहं; 5. अ, क, द पाहण; व पाणह; स पाहणु; 6. अ, ब धाडि; क, द, स वाडि; 7. अ वहाइं; क, द, ब, स वहाइ। 158 : पाहुडदोहा
SR No.090321
Book TitlePahud Doha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages264
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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