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________________ वह मन और इन्द्रियों की सहायता से जानने में नहीं आता है। इसलिए उसे अतीन्द्रिय कहा गया है। जोइय भिण्णउ झाय' तुहुँ' देहहं णिय अप्पाणु। जइ देहु वि अप्पउ मुणहि णवि पावहि' णिव्वाणु ॥130॥ शब्दार्थ-जोइय-हे जोगी!; भिण्णउ-भिन्न; झाय-ध्याओ; तुहुं-तुम; देहहं-देह से; णिय अप्पाणु-निजात्मा (को); जइ-यदि; देहु वि-शरीर भी; अप्पउ-अपना; मुणहि-मानते हो; णवि-नहीं; पावहि-प्राप्त होगा; णिव्वाणु-निर्वाण, मोक्ष। अर्थ-हे जोगी! तुम निज शुद्धात्मा को देह से भिन्न ध्याओ। यदि तुम देह को अपना मानोगे, तो निर्वाण की प्राप्ति नहीं होगी। भावार्थ-जो देह को अपना मानता है अर्थात् शरीर में एकत्व बुद्धि वाला है, वह बहिरात्मा मूढ़ है। आचार्य अमितगति कहते हैं यस्य रागोऽणुमात्रेण विद्यतेऽन्यत्र वस्तुनि। आत्मतत्त्वपरिज्ञानी बध्यते कलिलैरपि ॥-योगसार 1, 47 अर्थात-जिसके पराई वस्तु में थोड़ा-सा भी राग है, तो वह कर्म-बन्ध को अवश्य प्राप्त करता है। भले ही कोई तत्त्वज्ञानी क्यों न हो? यदि वह अणु मात्र भी सूक्ष्म से सूक्ष्म राग करता है तो कर्म-प्रकृतियों से बँधता है। और जो कर्म बाँधता है, वह मोक्ष को प्राप्त नहीं करता है। .. जिसे बहिरात्मा कहा गया है, उसे यह भेद-ज्ञान नहीं होता है कि शरीर भिन्न है और आत्मा भिन्न है, पर पदार्थों में मोहित जीव संयोग तथा सम्पर्क में आने वाली सभी चेतन-अचेतन वस्तुओं को मोह से अपनी मानता है। जो मोह को अपना मानता है, उसके उससे एकत्व बुद्धि होती है। जो ऐसा समझता है कि शरीरादि मैं हूँ, उसके शुद्धात्माका ध्यान नहीं होता। ध्यान शुद्धात्मा का ही होता है। जिस प्रकार विधि पूर्वक मन्त्र का जप करने पर, उससे घोर विष दूर कर दिया जाता है, उसी प्रकार ध्यान-विधि से शुद्धात्माका ध्यान कर आत्मा भी अनेक भवों के संचित कर्म मल को दूर कर देता है। (योगसार प्राभृत, 6,35) 1. अ, द झाइ; क, स झाय; ब जाणिय; 2. अ मुहु; क, द तुहूं; ब, स तुहु; 3. अ, क, द, व ते; स णिय; 4. अ अप्प वि; क अप्पउ; द, ब, स अप्पु वि; 5. अ पावहु; क, द पावहि; ब, स पावइ। पाहुडदोहा : 157
SR No.090321
Book TitlePahud Doha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages264
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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