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________________ भिण्णउ जेहिं ण जाणियउ णियदेहह परमत्यु। सो अंधउ अवरह अंधयहं किम दरिसावइ पंथु ॥129॥ शब्दार्थ-भिण्णउ-भिन्न; जेहिं-जिसने, जिसके द्वारा; ण जाणियउ-नहीं जाना गया; णियदेहहं-निज देह से; परमत्थु-परमार्थ (निज शुद्धात्मा); सो-वह; अंधउ-अन्धा (अज्ञानी) है; अवरहं-अन्य, दूसरे को; अंधयहं-अन्धे को; किम-किस प्रकार; दरिसावइ-दिखाता है; पंथु-पथ को। अर्थ-जिसने अपनी देह से भिन्न परमार्थ (निज शुद्धात्मा) को नहीं जाना, नहीं देखा है, वह अन्धा (अज्ञानी) है। ऐसा अन्धा दूसरे अन्धों को कैसे मार्ग । (ज्ञानमार्ग) दिखा सकता है? भावार्थ-आचार्य शुभचन्द्र कहते हैं कि यह बड़ा खेद है कि जहाँ अमृत तो विष के लिए है, ज्ञान मोह के लिए है और ध्यान नरक के लिए है, सो जीवों की यह विपरीत चेष्टा आश्चर्य उत्पन्न करती है। (ज्ञानार्णव, 10) जब तक चेतन भगवान् आत्मा की प्रतीति नहीं होती, तब तक प्राणियों में भिन्नता दिखलाई पड़ती है; जबकि सामान्यपने सभी जीव समान हैं। सभी में चैतन्य समान है। मुनि योगीन्दुदेव का कथन है-हे जीव! परमार्थ को समझने वालों के कोई जीव बड़ा या छोटा नहीं है। सभी जीव परमब्रह्म स्वरूप हैं। ज्ञानी.सभी में एक को ही देखता, जानता है। (परमात्मप्रकाश, आ 2, दो. 74) यदि अन्धा प्राणी कुए में गिरे तो आश्चर्य नहीं होता है, किन्तु सूझता गिरे तो आश्चर्य होता है। उसी प्रकार आत्मा-ज्ञाता-द्रष्टा है, तथापि मोह से संसार रूपी कुए में गिरता है। ऐसे अज्ञानी को यहाँ पर अन्धा कहा गया है। आचार्य मोह के उदय में राग को हरा-भरा समझने वालों को अन्धा कहते हैं। आचार्य अमृतचन्द्र के अनुसार मोहरूपी मदिरा का पान कर संसारी जीव मैले स्थान पर सो रहा है। आचार्य उसे जगाते हुए कहते हैं कि हे अन्ध प्राणी! तुम जिस पद में सो रहे हो, वह तुम्हारा पद नही है। तुम्हारा पद तो शुद्ध चैतन्य धातुमय है जो विकाररहित, शुद्ध और स्थायी है, ऐसे स्वभाव का आश्रय करो। (समयसारकलश, 138) आचार्य देवसेन का कथन है कि मन-मन्दिर के उजाड़ होने पर अर्थात् उसमें संकल्प-विकल्पों के नहीं बसने पर और सभी इन्द्रियों का व्यापार नष्ट हो जाने पर आत्मा का स्वभाव अवश्य प्रकट होता है। इस आत्मस्वभाव का आश्रय लेने पर ही आत्मा परमात्मा हो जाता है। (आराधनासार, गा. 85) आत्मा का स्वभाव स्वसंवेदनगम्य प्रत्यक्ष है। 1. अ जेहि; क, द, स जेहिं; ब जेह; 2. अ, ब जाणियउं; क, द, स जाणियउ; 3. अ, स णियदेहह; क, द ब णियदेहहं; 4. अ अवरं; क, द, ब, स अवरह। 156 : पाहुडदोहा
SR No.090321
Book TitlePahud Doha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages264
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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