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________________ णिरारिउ-अत्यन्त, बहुत; पज्जलइ-प्रज्वलित (होता है); हुयवहु-(हुतवह) अग्नि; जेम-जिस तरह; घिएण-घी के द्वारा। अर्थ-हे जीव! तुम जिन विषयों का सेवन करते हो, वे दुःख के साधक हैं। इसलिए तुम्हें बहुत जलना पड़ता है, जैसे घृत से अग्नि प्रज्वलित होती है। भावार्थ-यह पहले ही कहा गया है कि विषयों के सेवन से दुःख की परम्परा चलती है। विषयों का सेवन कर्म-बन्ध का कारण है। मुनिश्री योगीन्दुदेव कहते हैं विषय-कषायों में लीन रहनेवाले जीवों के जो कर्म-परमाणुओं के समूह बँधते हैं, वे कर्म कहे जाते हैं। उनके ही शब्दों में पंच वि इंदिय अण्णु मणु अण्णु वि सयल विभाव। जीवहँ कम्मइँ जणिय जिय अण्णु वि चउगइ ताव ॥ परमात्मप्रकाश 1,63 पाँचों ही इन्द्रियाँ भिन्न हैं, मन और रागादिक सब विभाव परिणाम अन्य हैं तथा चारों गतियों के दुःख भी अन्य हैं। हे जीव! ये सब जीवों के कर्म से (उदयजनित) उपजे हैं, जीव से भिन्न हैं, ऐसा समझना चाहिए। वास्तव में चारों गतियों के दुःख विषयों के सेवन से प्राप्त होते हैं। पण्डितप्रवर टोडरमलजी के शब्दों में-“बहुरि मोहके आवेश है तिन इन्द्रियनि के द्वारा विषय ग्रहण करने की इच्छा हो है। बहुरि तिन विषयनि का ग्रहण भए तिस इच्छा के मिटने तैं निराकुल हो है, तब आनन्द मानै है। जैसे कूकरा हाड़ चावै ताकरि अपना बोटी निकसै ताका स्वाद लेय ऐसा मानै, यह हानिका स्वाद है। तैसे यह जीव विषयनि को जानै ताकरि अपना ज्ञान प्रवर्ते, ताका स्वाद लेय ऐसा मानै, यह विषय का स्वाद है सो विषय में तो स्वाद है नाहीं। आप ही इच्छा करी थी ताको आप ही जानि आप ही आनन्द मान्या, परन्तु मैं अनादि अनन्तज्ञान स्वरूप आत्मा हूँ-ऐसा निःकेवलज्ञान का तो अनुभव है नाहीं। (मोक्षमार्गप्रकाशक, तीसरा अधिकार, पृ. 40) और फिर इच्छा तो त्रिकालवर्ती सभी विषयों को ग्रहण करने की बनी रहती है। लेकिन एक समय में एक ही विषय का ग्रहण हो पाता है। एक-एक इन्द्रियों की विषयों की अधीनता के कारण कितना दुःख सहन करना पड़ता है और फिर उनकी दुर्गति होती है, तो जो पाँचों इन्द्रियों के दास हैं और निरन्तर विषय-सेवन करना चाहते हैं उनका क्या कहना है? पं. दौलतरामजी ने ठीक ही कहा है ___ यह राग आग दहै सदा तातें समामृत सेइये। चिर भजै विषय-कषाय अब तो त्याग निजपद वेइये ॥ -छहढाला, अन्त्य पाहुडदोहा : 147
SR No.090321
Book TitlePahud Doha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages264
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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