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________________ पर के सम्मुख रहने के कारण निज शुद्धात्म स्वभाव के सन्मुख नहीं हो पाता। इसका एक मात्र कारण पूर्णता के लक्ष का अभाव है। त्रिकाली ध्रुव चैतन्य स्वभाव का लक्ष होने पर मन विकल्पों से हटकर स्वभाव के सन्मुख हो जाता है। और फिर, धीरे-धीरे स्थिरता प्राप्त होने पर मन सहज ही रुक जाता है। इसमें मुख्य कार्य आत्म-श्रद्धान का है। मनुष्य की बुद्धि जहाँ हित देखती है, वहीं ढल जाती है-आचार्य पूज्यपाद का कथन है यत्रैवाहितधीः पुंसः श्रद्धा तत्रैव जायते। यत्रैव जायते श्रद्धा चित्तं तत्रैव लीयते ॥ यत्रानाहितधीः पुंसः श्रद्धा तस्मानिवर्तते। यस्मात्रिवर्तितं श्रद्धा कुतश्चित्तस्य तल्लयः ॥ समाधिशतक 95-96 अर्थात्-जिस विषय में पुरुष की बुद्धि जुड़ जाती है, उस विषय में रुचि उत्पन्न हो जाती है और जिसकी श्रद्धा (रुचि) हो जाती है, उस विषय में मन लय को प्राप्त हो जाता है। जहाँ पर मनुष्य की बुद्धि नहीं जमती है, वहाँ से रुचि हट जाती है और जिससे रुचि हट जाती है, उसमें फिर किस तरह से चित्त की लीनता हो सकती है? यही कारण है कि रत्नत्रय में आत्मश्रद्धान को प्रमुख कहा गया है। यदि निज शुद्धात्मा की ओर चित्त नहीं ढलता है, तो न आत्मज्ञान हो सकता है और न सम्यक्चारित्र। रत्नत्रय की साधना में चित्त किंवा संकल्प-विकल्प सबसे अधिक बाधक हैं। इसलिए जब तक मन लय को प्राप्त नहीं होता, तब तक राग-द्वेष की लहरें उठती रहती हैं। और जब तक इनका उठना, उछलना चालू रहता है, तब तक साधक दशा प्रारम्भ नहीं होती। साधक दशा ही धर्मात्मा को संसूचित करती है। यदि साधकपना नहीं है, तो कैसे समझ में आए कि जीवन में धर्म प्रारम्भ हो गया है? जीव म जाणहि अप्पणा विसया होसहि मज्झु। फल किमपाकह जेम तिम दुक्ख करेसहिं तुज्झु ॥120॥ - शब्दार्थ-जीव-हे जीव!; म जाणहि-मत जानो; अप्पणा-अपने विसया-विषयों (को छोड़कर) होसहिं-हो जायेंगे; मझु-मेरे; फल किमपाकह-इन्द्रायण का फल; जेम-जिस प्रकार; तिम-उस प्रकार; दुक्ख-दुःख; करेसहिं-करेंगे; तुज्झु-तुझे। 1. अ जाणिहि; क, द, ब, स जाणहि; 2. अ, स होसहि; ब होसइ; क, द होसहिं; . अ किं पावहुः क, द किं पाकहि; व किमपायह; स किमपाकह; 4. अ करेसहि; क, द करेसहि; ब, स करेसइ। पाहुडदोहा : 145
SR No.090321
Book TitlePahud Doha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages264
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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