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निमित्त रूप कर्म के परमाणु न हों, तो कर्म का बन्ध नहीं हो सकता है। ज्ञानानन्द स्वभावी चैतन्य भगवान् आत्मा तो ज्ञाता, द्रष्टा और विकारी भावों से स्वभाव में शून्य है, इसलिए ज्ञायक प्रभु अर्थात् आत्मा स्वभाव से कर्म-बन्धन में निमित्त नहीं है। द्रव्यदृष्टि से देखा जाए, तो कोई भी द्रव्य बनने-बिगड़ने वाली अवस्थाओं में निमित्त नहीं है। वह न तो स्वयं में स्वभावतः निमित्त है और न पर में निमित्त है। निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध मात्र पर्याय दृष्टि से है।
जगत् में जो भी परिवर्तन होता दिखाई देता है, वह पर्यायों की विभिन्न अवस्थाओं के कारण है। द्रव्य तो सदा काल ज्यों का त्यों रहता है। चूंकि पर्याय का मालिक द्रव्य है, इसलिए अवस्था विशेष को बतलाने के लिए यह कहा जाता है कि वही जीव पशु से नारकी, देव, मनुष्य बना, किन्तु जीव तो जीव ही रहता है, गति रूप अवस्था के कारण ऐसा व्यवहार में कहा जाता है।
मनुष्य विशेष पढ़ा-लिखा होने पर भी धर्म की समझ न होने के कारण अपना भाव नहीं पहचानता है। अपना स्वभाव न जानने के कारण ही हम दुर्बुद्धि कहे जाते हैं। जो अपना स्वभाव जानती है वह सुमति या सुबुद्धि कहलाती है। संसार के सम्पूर्ण कार्य सुमति तथा कुमति से ही किए जाते हैं। दुईद्धि के कामों में पछताना पड़ता है और सुमति के कार्यों में सन्तोष व सुख का अहसास होता है। इस प्रकार यह संसार और उसका कार्य निरन्तर चलता रहता है।
जइ वारउं तो तहिं जि' पर अप्पहँ मणु ण धरेइ। विसयह कारणि जीवडउ णरयह दुक्ख सहेइ ॥119॥
शब्दार्थ-जइ-यदि; वारउं-रोकता हूँ तो; तहिं-वहीं; जि (पादपूरक); पर-पर (भाव में) जाता है; अप्पहं-आत्मा को; मणु-मन (में); ण धरेइ-नहीं धारण करता है; विसयहं-विषयों के कारणि-कारण; जीवडउ-जीव; णरयहं-नरक के दुक्ख-दुःख; सहेइ-सहता है।
अर्थ-यद्यपि मैं मन को रोकता हूँ, फिर भी वह पर में जाता है; आत्मा को मन में धारण नहीं करता। विषयों में प्रवृत्ति होने के कारण ही जीव को नरकों के दुःख सहन करने पड़ते हैं।
भावार्थ-मन का रुकना और रोकना कठिन है और अभ्यास से सरल व सहज भी है। कठिन इसलिए है कि पर का लक्ष्य है, भौतिक पदार्थों की महिमा है।
1. अ ज; क, द, ब, स जि; 2. अ, स अप्पह; क अन्नहि; द, व अप्पह; 3. अ, ब, विसयह; क, द, स विसयह; 4. अ, क, द, व कारणि; स कारण; 5. अ, स णरयह; क, द, णरयह; व णरएह।
144 : पाहुडदोहा