________________
सकते हैं, लेकिन वस्तु में क्या भेद होना है? वस्तु अपने गुण-धर्म से जैसी है, वह पहले भी वैसी ही थी, आज भी वही है और आगे भी वही रहेगी। अतः आत्मधर्म, वस्तु-धर्म, पुद्गल या अचेतन का धर्म जैसा आज है, वैसा ही त्रिकाल रहेगा। इसी प्रकार देव भी एक ही हैं। तरह-तरह के देवी-देवता नामधारी हो सकते हैं, लेकिन 'देव-संज्ञा' तो एक की ही है। प्रश्न है कि वह एक कौन है? जो वीतराग है, निर्लेप है, कर्ता-धर्ता नहीं है, वही देव है। क्योंकि साधारण मनुष्यों की तरह देव भी लौकिक कार्य-व्यापार करता हो, तो दोनों में अन्तर क्या रहा? देव की दृष्टि में तो सभी प्राणी समान हैं। यह समभाव वीतरागता के बिना प्रकट नहीं हो सकता। वीतरागता अतीन्द्रिय आनन्द रूप धर्म के बिना प्रकाशित नहीं होती। धर्म की मुद्रा क्या है? जैसे बिना मुद्रा के कोई सिक्का नहीं होता, वैसे अतीन्द्रिय आनन्द ही धर्म की मुख्य मुद्रा है। अतः धर्म आत्मानुभव की वस्तु है जो निर्विकल्प दशा में स्व-संवेद्य है। वह ज्ञानानन्द स्वरूपी वस्तु का स्वभाव है और जो वस्तु का स्वभाव है, (वत्थुसहावो धम्मो) वही धर्म है। तथा
जिन सो ही है आत्मा, अन्य सो ही है कर्म। यही वचन से समझ ले, जिन-प्रवचन का मर्म ॥
अप्पा मेल्लिवि एक्कु पर अण्णु ण वइरिउ कोइ'। जेण विणिम्मिय कम्मडा जइ पर फेडइ सोइ ॥18॥ ___ शब्दार्थ-अप्पा-आत्मा (को); मेल्लिवि-छोड़कर; एक्कु-एक (ही); पर-पराया; अण्णु-अन्य; ण-नहीं; वइरिउ-वैरी; कोइ-कोई; जेण-जिससे; विणिम्मिय-विनिर्मित (हुए); कम्मडा-कर्म; जइ-यति, योगी; पर-परभाव (को); फेडइ-फेंट देता है, मिटा देता है। .
अर्थ-हे आत्मन्! एक अपनी आत्मा को छोड़कर अन्य कोई वैरी नहीं है। जिसके भाव (राग, द्वेष, मोह) के द्वारा कर्म निर्मित हुए हैं, उस परभाव को जो फेंट देता है, मिटा देता है, (वास्तव में) वही यति है।
भावार्थ-वास्तव में मनुष्य की दुर्बुद्धि ही उसकी शत्रु है और सत्बुद्धि ही मित्र है। जो भी भावकर्म और राग, द्वेष, मोह के निर्मिति रूप द्रव्यकर्म बनते हैं, वे सब खोटे भाव (विभाव भाव) से उत्पन्न होते हैं। नया कर्म जो बँधता है, वह दशा जड़कर्म के निमित्त से होती है और उसमें उपादान रूप से जीव के भाव तथा
1. अ, स एक; क, द, व एक्कु; 2. अ अप्पु; क, द, स अण्णु; व अणु; 3. अ वयरिय; क, द, व वइरिउ; स वइरिय; 4. अ होइ; क, द, ब, स कोइ 5. अ विवज्जिउ; क विणिम्मिय; द, व बि अज्जिय; स विणिम्मिअ; 6. अब दुक्खडा; क, द, स कम्मडा।
पाहुडदोहा : 143