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गुरु तार देते हैं, भव-पार करा देते हैं-यह सब निमित्त की अपेक्षा व्यवहार का कथन मात्र है। क्योंकि कार्य तो अपने से अपने में होता है। निज आत्म-स्वभाव के आश्रय के बिना सुख और शान्ति की उपलब्धि नहीं होती। किन्तु आत्मज्ञान के इस मार्ग से हम अनादि काल से अनजान हैं, इसलिए चौरासी लाख योनियों में भटक रहे हैं। इन 84 लाख योनियों में प्रत्येक वनस्पति की 10 लाख, मनुष्यों की 14 लाख, देव, नारकी और पंचेन्द्रिय तिर्ययों की 4-4 लाख, दो इन्द्रिय से चार इन्द्रिय तक सब छह (2 x 3 = 6) लाख एवं नित्य निगोद, इतर निगोद, पृथिवीकाय से ले कर वायुकाय तक 7-7 लाख (42 लाख) योनियाँ सम्मिलित हैं। इस प्रकार 84 लाख योनियाँ कही गई हैं। 'योनि' का अर्थ है-जिसमें जीव जाकर उत्पन्न हो। योनि मिश्ररूप है, जिसमें जीव औदारिक आदि नोकर्म वर्गणारूप पुद्गलों के साथ सम्बन्ध को प्राप्त होता है, ऐसे जीव के उपजने के स्थान का नाम योनि है। वट्ट जु छोडिवि मउलियउ' सो तरुवरु अकयत्यु। रीणा पहिय ण वीसमिय फलहिण लायउ हत्थु ॥116॥
शब्दार्थ-वट्ट-पत्र (पत्ते को); जु-जो; छोडिवि-छोड़कर; मउलियउ-मुकलित हुआ; सो-वह; तरुवरु-उत्तम वृक्ष; अकयत्थु-अकृतार्थ (है); रीणा-(मार्ग चलने से) थके हुए; पहिय-पथिकों (के लिए); ण वीसमिय-न (यहाँ) विश्राम (मिलता है); फलहिं-फलों में; ण-नहीं: लायउ हत्थु-लगा पाते (हैं) हाथ (कोई)। ... अर्थ-पत्तों को छोड़कर जो मुकलित हुआ है, वह तरुवर अकृतार्थ है। क्योंकि न तो थके हुए पथिकों को वहाँ विश्राम मिलता है और न फलों में कोई हाथ लगा पाता है।
इस दोहे का व्यंग्य अर्थ यह है कि उस वैभव के प्रदर्शन से क्या लाभ है जो धन दीन-दुखियों की भलाई में नहीं लगता है। परोपकार की बुद्धि होने पर दान देने से ही धन की सार्थकता है अर्थात् पत्तों के बिना वृक्ष का फलना व्यर्थ है।
भावार्थ-मिथ्यात्व अर्थात् विपरीत मान्यता और अनन्तानुबन्धी के परिणाम बन्ध होने में मुख्य कारण हैं। मिथ्या श्रद्धान रूप स्व-पर की एकत्व बुद्धि के अध्यवसाय (मिथ्या अभिप्राय) को आचार्य कुन्दकुन्द ने बन्ध का प्रमुख कारण कहा है। पर में सुख है, पुण्य में धर्म है, पाप में मजा है, इत्यादि स्व-पर सम्बन्धी मिथ्या बुद्धि सहित विभाव भाव रूप अध्यवसाय बन्ध का कारण है। अतः जो अध्यवसाय को छोड़कर सभी का त्याग कर देता है, यहाँ तक कि घर-द्वार, स्त्री-पुत्रादि को
1. अ मउडिउ; क, द ब, स मउलियउ; 2. अ अविहत्थु; क अकियत्यु; द, ब, स अकयत्यु; 3. अ, ब, स फलह; क फलिहिं; द फलहिं।
पाहुडदोहा : 141