SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 142
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ निर्विकल्प है। अतः वीतराग की सत्संगति में रहने से राग की रुचि नहीं होती । अतः अज्ञानी को उपभोग बन्ध का कारण है और ज्ञानी को निर्जरा का निमित्त है; क्योंकि ज्ञानी को रोग की रुचि का अभाव है। वास्तव में भोग- उपभोग निर्जरा के नहीं, बन्धके कारण हैं। लेकिन जिनकी अन्तर्दृष्टि में से राग निकल गया है, दृष्टि निर्मल हो गई है, राग से ममत्व बुद्धि छूट गई है, राग में रुचि नहीं है, वह ज्ञान ( आत्मज्ञान) की अन्तर्दृष्टि के बल पर राग में एकत्व न होने से, स्वामित्व बुद्धि का अभाव होने सत्ता में राग भाव के विद्यमान होने पर भी तज्जन्य कर्म-बन्ध को प्राप्त नहीं होता । आगम में स्पष्ट उल्लेख है कि सम्यग्दृष्टि और सम्यग्ज्ञानी के मिथ्यात्व तथा अनन्तानुबन्धी कषाय नहीं होती । अतः उनके उपशम के काल में मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी का कार्य नहीं देखा जाता है। इसलिए उसके रागादि भावों का अभाव कहा जाता है। एक्क ण जाणहि वट्टडिय अवरु ण पुच्छहि कोइ' । अड्डवियड्डह डुंगरहं पर भज्जंता जोइ ॥ 115॥ शब्दार्थ - एक्क - एक (तो); ण जाणहि - नहीं जानते हो; वट्टडिय -मार्ग; अवरु-और; ण पुच्छहि-नहीं पूछते हो; कोई - किसी (से); अड्डवियड्डहंअटवी से अटवी; डुंगरहं-डूंगर, पर्वत ( पर); णर - मनुष्य; भज्जता - भाग हुए; जोइ - देख | अर्थ - एक तो तुम मार्ग नहीं जानते हो, दूसरे किसी से पूछते नहीं हो । अतः ऐसे लोगों को अटवी से अटवी तथा पर्वतों पर भागते, भटकते हुए देख । भावार्थ - जिसे वनके मार्ग का पता न हो और वह किसी से जानकारी प्राप्त न करे, तो उसका भटकना अवश्यम्भावी है। कारण यह है कि जंगली रास्ते बड़े भूल-भुलैयावाले होते हैं। एक बार मार्ग भूल जाने पर भटकते रहो । फिर, मार्ग खोजना असम्भव हो जाता है । इसी प्रकार एक मार्ग संसार का है और एक मुक्ति का। संसार का मार्ग सभी प्राणी पहचानते हैं, इसलिए वह सरल है । किन्तु मुक्ति का मार्ग संसार-मार्ग से बिलकुल विपरीत तथा पूरी तरह से भिन्न है । उसे सद्गुरु या सत्संग से जाने बिना पहचान लेना बहुत कठिन है । ‘सत्संग' का अर्थ परसंग या अन्य व्यक्ति का साथ नहीं है, किन्तु निज शुद्धात्म स्वभाव के साथ रहना है। अतः प्रथम तो आप आपका गुरु है । स्वयं ही स्व स्वभाव के साधन व आश्रय से संसार - सागर से तर सकता है । गुरु तारण तरण जहाज हैं, 1. अ जाणिहिं; क, द, ब, स जाणहि; 2. अ, क, ब कोइ; द को वि; स कोई, 3. अ, ब, स अड्डवियह; क, द अद्दुवियद्दहं 4 अ, ब, स भज्जंता; क, द भजंता । 140 : पाहुडदोहा
SR No.090321
Book TitlePahud Doha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages264
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy