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अभाव रूप आत्म-परिणाम है। आत्मा की पूर्ण पवित्र, पूर्ण वीतराग और आनन्दमय दशाका नाम मोक्ष है।
यथार्थ में शास्त्रज्ञान का अर्थ आगमज्ञान है। आत्मा की पर्याय का ज्ञान आत्मज्ञान नहीं है, और न रागका ज्ञान सम्यग्ज्ञान कहा जा सकता है। आत्मज्ञान ही वास्तविक ज्ञान है जो त्रिकाली शुद्ध परमात्म द्रव्य के स्वसंवेदन में स्वानुभव से प्रकट हुआ ज्ञान है। ऐसे ज्ञान के परिणमन से, शुद्धोपयोग रूप परिणाम से मोक्ष की प्राप्ति होती है; राग रूप परिणमन तथा क्रिया-काण्ड से मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती। व्यवहार में आत्मा और बन्धको भिन्न-भिन्न कर लेने का नाम मोक्ष है। बन्ध से छूट जाना-यह मोक्ष है। निश्चय में अपने स्वरूप में सदा मग्न रहना, इसका नाम मोक्ष है। अपने स्वरूप में मन के विलीन होने पर ही यह दशा सम्भव है।
तव दावणु वय णियमडइ' समदम कियउ पलाणु। संजमघरहँ' उमाहियउ गउ करहा णिव्वाणु ॥114॥
शब्दार्थ-तव-तप; दावणु-दामन; वय-व्रत; णियमडइ-नियम (से); समदम-शम-दम; कियउ-किया; पलाणु-पलेंचा (घोड़े पर कसी जाने वाली जीन); संजमघरह-संयम-घर से; उमाहियउ-उदासीन हुआ; गउ-गया, प्राप्त हुआ; करहा-करभ (ऊँट); णिव्वाणु-निर्वाण (को)।
अर्थ-जिसका तप का दामन (बन्धन) है, व्रत का साज नियम से है तथा शम-दम का पलेंचा बनाया गया है, वह मन रूपी ऊँट संयम रूपी घर में उमाही (उदासीन) हुआ निर्वाण को प्राप्त हो गया है।
भावार्थ-यह निश्चित है कि जब यह मन निज शुद्धात्म स्वभाव के सन्मुख होकर अपने स्वरूप में स्थिर हो जाता है, तब तप रूपी बन्धन के कारण इधर-उधर नहीं भागता है। तप के साथ व्रत नियम से होते हैं। जब-तब यह संयम से उदासीन होता है, लेकिन स्थायी रूप से स्थिर होकर मुक्ति को प्राप्त करता है। ___ आगम के अनुसार उपवास तप है। आचार्य गृध्रपिच्छ कहते हैं कि “तपसा निर्जरा" अर्थात् तप से निर्जरा होती है। किन्तु लोक-रीति में जिसे उपवास कहते हैं, उससे तो निर्जरा नहीं होती। क्योंकि 'उपवास' का सच्चा अर्थ है-आत्मा के पास रहना अर्थात् अपने शुद्ध स्वभाव में मग्न होना। वास्तव में आत्मा के शुद्ध स्वभाव में स्थिर रहने से तप होता है जो निर्जरा का कारण है। निज शुद्धात्म स्वभाव वीतराग,
1. अणियमडई; क, ब, स णिल्लडइ द भियमडा; 2. अ संजमघरु; क, स संजमघर; द संजमघरहं; व संयम धरि; 3. अ, क, स उमाहियउ; द उम्माहियउ; ब उम्माहिं चउगइ।
पाहुडदोहा : 139