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________________ और दशा दोनों में महान् परिवर्तन हो सकता है। लक्ष्य बदलते ही दृष्टि बदल जाती है । जो दृष्टि पहले विषय-भोगों में लगी हुई थी, वह अब आत्मा के स्वभाव के सन्मुख हो जाती है। कोई यह कहे कि पाँचों इन्द्रियों के विषयों के सेवन से सुख मिलता है तो यह भ्रम मात्र है। आचार्य अमितगति कहते हैं - पाँचों इन्द्रियों के विषय अचेतन हैं। वे आत्माका न तो उपकार करते हैं और न उपकार । आत्मा भ्रमवश विकल्प बुद्धि से उनको अपना सुखदाता व दुःखदाता मानता है । ( योगसार 5, 29 ) अतः लक्ष्य की ओर ध्यान व उपयोग रहने पर मन को जीतना सरल हो जाता है। इस सम्पूर्ण प्रक्रिया में दृष्टि परिवर्तन ही मुख्य है । दृष्टि बदलते ही आत्मज्ञान तथा मोक्षमार्ग प्रारम्भ हो जाता है । अतः मन सहज ही वश में हो जाता है। करहा चरि' जिणगुणथलहिं तव - विल्लडिय' पगाम । विसमी भवसंसारगइ उल्लूरियहि' ण जाम ॥11॥ शब्दार्थ-करहा-ऊँट (सम्बोधन); चरि-चरो; जिणगुणथलहिं - जिनगुण (रूपी) स्थली ( को ); तव - विल्लडिय - तप (रूपी) वेल; पगाम - प्रकाम, पर्याप्त; विसमी भवसंसारगइ - विषम ( है ) भव-संसार (की) गति; उल्लूरियहि- उच्छेदन हो; ण जाम - न जब तक । अर्थ- हे करभ! जब तक विषम भव-संसार की गति का उच्छेदन न हो जाए, तब तक जिन-गुण रूपी स्थली में चरो, तप रूपी वेलि पर्याप्त रूप से फैली हुई है। भावार्थ - यहाँ पर कवि ने रूपक के माध्यम से मन रूपीं ऊँट को समझाते हुए कहा है कि जब तक यह विषम जन्म-मरण रूप संसार है, तब तक जिनशासन के चरागाह में गुणों का सेवन करो, तपश्चर्या करो । निर्वाण प्राप्त करने में सबसे बड़ा अवरोध मन है। जब तक मन इधर-उधर जाता रहेगा, तब तक मुक्ति का मार्ग प्रारम्भ नहीं होगा । इसलिए यह अत्यन्त आवश्यक है कि मन ऐसी भूमिका को प्राप्त हो जहाँ स्थिरता, एकाग्रता हो । यह तभी हो सकता है जब उपयोग अपने गुणों में अनुराग कर उनमें रस लेकर भलीभाँति रम जाए। वास्तव में देह की नग्न दशा और व्रतादि का विकल्प देहाश्रित है। मुनिदशा का वह बाह्य लिंग अवश्य है, परन्तु उससे मोक्षमार्ग नियम से हो; ऐसा नहीं है। अतः शब्दश्रुत का ज्ञान, नव तत्त्व की भेद रूप श्रद्धा का विकल्प और पंच महाव्रतादि का परिणाम प्रशस्त होने पर भी वह मोक्षमार्ग नहीं हैं। क्योंकि मोक्ष सर्व कर्मों का 1. अ, क, ब, स चरि; द चडि; 2. अ, स विल्लडउ; क, द विल्लडिय; ब वेल्लडिय; 3. अ, स पगामु; क, द, ब पगाम; 4. अ, क, द उल्लूरियहि; ब उल्लुडियहि; स उल्लूरयह । 138 : पाहु
SR No.090321
Book TitlePahud Doha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages264
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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