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अर्थात-मुक्ति की इच्छा करने वाले मुनिराजों ने कल्पना-जाल को छोड़कर परम शान्तिप्रद नित्य ध्यान का ही अवलम्बन लिया है।
सभी प्रकार की कल्पनाओं को दूर करने का एक मात्र उपाय निज शुद्धात्म-स्वभाव का आश्रय है। परका आलम्बन छोड़ने के लिए निजात्म-स्वभावका आलम्बन लेना होता है। क्योंकि आलंबन लिए बिना मन को विश्राम नहीं मिलता। इन दोनों के होने पर ही विकल्प शान्त होते हैं। जितने अधिक विकल्प होते हैं, उतनी ही उलझन व परेशानी मालूम पड़ती है। अतः कल्पनाएँ स्वयं जंजाल हैं। एक समय की सूक्ष्म कल्पना भी, भले ही रंगीन क्यों न हो; चित्त में उलझन उत्पन्न करती है। क्योंकि उस समय वह भले ही सुख का आभास कराती हो, किन्त अन्त में वैसी स्थिति न बनने से दुःखदायक ही है।
अज्जु जिणिज्जई करहुलउ जई पई देविणु' लक्नु। जित्थु चडेविणु परममुणि सव्व गयागय मोक्खु ॥112॥
शब्दार्थ-अज्जु-आज; जिणिज्जइ-जीता जा सकता है; करहुलउ-ऊँट (करभ) को; जइ-यदि; पइं-तुम; देविणु-देकर; लक्खु-लक्ष्य; जित्थु-जहाँ, जिस पर; चडेविणु-चढ़कर, सवार होकर; परममुणि-श्रेष्ठ मुनि; सव्व-सब; गयागय,मोक्खु-आवागमन (से) मुक्त (हो गये)।
अर्थ-यदि तुम लक्ष्य देते हो तो आज ही मन रूपी ऊँट को जीता जा सकता है, जिस पर सवार होकर परम मुनि सभी गमनागमन से मुक्त हो जाते हैं।
भावार्थ-यहाँ पर 'ऊँट' मन के प्रतीक के रूप में प्रयुक्त है। ऊँट इन्द्रियों को फैला कर चलता है, रेगिस्तान में अपने पेट की थैली में जल का संग्रह कर मीलों भागता जाता है। ऊँट के समान मन भी विषयों में दौड़ लगाता है। मन को जीतना कोई कठिन नहीं है, किन्तु हमारा लक्ष्य परमात्मा न होकर भौतिक पर-पदार्थ हो गए हैं। सम्पूर्ण बाहरी पदार्थों को जो आत्मा के लिए सुख-दुःख देने वाले कल्पित किए जाते हैं, उन सब में मोहका कार्य मुख्य है। वास्तव में यह पदार्थ मेरे लिए अनिष्ट है या इष्ट है, ऐसा चिन्तन करने से वह अनिष्ट या इष्ट रूप नहीं होता। क्योंकि जो वस्तु जैसी है, वैसी रहती है। इसलिए परकी चिन्ता छोड़ कर निज शुद्धात्म स्वरूप का लक्षकर चिन्तन करना चाहिए। इसे ही लक्ष्य देना कहते हैं। यदि हमारा लक्ष्य धन-सम्पत्ति, भौतिक समृद्धि से हटकर आत्म-वैभव प्राप्त करना हो जाए, तो दिशा
1. अ, स अज्ज; क, द, ब अज्जु; 2. अ, द, ब, स जिणिज्जइ; क जिणज्जइ; 3. अ, क, द, व लई, स जइ; 4. अ, द, स देविणु; क दिव्बउ; ब देविण; 5. अ, स गयागइ; क, द, ब गयागय; 6. अ, द, स मोक्खु; क मुक्खु ब मोखु।
पाहुडदोहा : 137