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________________ है। जिससे आस्रव-बन्ध हो, वह चारित्र कैसे हो सकता है? आचार्य जिनसेन कहते हैं कि जिससे कर्मों का आस्रव न हो, उसे चारित्र अथवा संयम कहते हैं। (आदिपुराण, 47, 306) ऐसा चारित्र ही पालन करने योग्य है। किन्तु इस वृत्तिको प्राप्त करने के लिए व्रत, सदाचार की भूमिका के अनुसार उसका पालन करना अत्यावश्क है। मूल में तो राग-द्वेष छोड़ने का नाम चारित्र है जो 'चरणानुयोग' का मूल विषय है। सव्ववियप्पह तुट्टह चेयणभावगयाह। कीलइ अप्पु परेण सिहु णिम्मलझाणठियाह ॥iiin शब्दार्थ-सव्ववियप्पहं-सब विकल्पों (के); तुट्टहं-टूट (जाने से); चेयणभावगयाहं-चैतन्य भाव (में) स्थित (हो जाने पर); कीलइ-रमते (हैं) अप्पु-अपने (में); परेण-अन्य (के); सिहु-साथ; णिम्मलझाणठियाह- . निर्मल ध्यान (में) स्थित। अर्थ-जिनके सभी विकल्प छूट गये हैं और जो चैतन्य भाव में स्थित हैं, वे अपने में रमण करते हैं; पर के साथ नहीं रमते हैं। वास्तव में वे निर्मल ध्यान में स्थित कहे गये हैं। भावार्थ-संसार-अवस्था में जीव निरन्तर विकल्प करता रहता है। आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं कि जो नयों के पक्षपात को छोड़कर अपने स्वरूप में गुप्त होकर सदा निवास करते हैं और जिनका चित्त विकल्प-जाल से रहित शान्त हो गया है, वे ही साक्षात् अमृत का पान करते हैं। (समयसारकलश, 69) वास्तव में उक्त दोहे में जो वर्णन किया गया है, वह समाधिदशा का है। मुनिश्री योगीन्दुदेव का कथन है कि जो सभी संकल्प-विकल्पों से रहित होकर परम समाधि की अवस्था प्राप्त करते हैं, वे जिस सहज सुख को उपलब्ध होते हैं, वही मोक्ष-सुख कहा गया है। (योगसार, दो.96) ___ आज तक जो भी मुक्ति के साधक हुए हैं, उन सभी ने सभी प्रकार की कल्पनाओं का त्यागकर शुद्ध ध्यान का आलम्बन लिया है। आचार्य शुभचन्द्र के शब्दों में अपास्य कल्पनाजालं मुनिभिर्मोक्तुमिच्छुभिः। प्रशमैकपरं नित्यं ध्यानमेवावलम्बितम् ॥ज्ञानार्णव, 5, 258 1. अ, ब, स सव्ववियप्पह; क सव्ववियप्पइं; द सव्ववियप्पहं; 2. अ, ब, स तुट्टयह; क, द तुट्टहं; 3. अ चेयणभाउ; द, ब, स चेयणभाव; 4. अ, ब, स: अप्प; क द अप्पु; 5. अ, स सहुः क, द सिह; व सहूँ; 6. अ, द, ब, स णिम्मलझाणठियाहं; क णिम्मलु। 16 : पाहुडदोहा
SR No.090321
Book TitlePahud Doha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages264
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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