________________
तरह-तरह के रंग-रूपों का निर्माण-रचना को देखकर हम भौतिक जगत् की ओर आकृष्ट होते हैं, वैसे ही शरीरादि बाह्य रचना की ओर इन्द्रियों का आकर्षण होता रहता है। उस समय हमारा विवेक जाग्रत होकर यह नहीं जानता, समझता कि पुद्गल की भौतिक सृष्टि सदा काल से अनेक रूपों में होती आई है, उसमें नवीनता कुछ नहीं है। वास्तव में प्रत्येक समय ताजगी से भरे हुए नित नये जानन, जानन ताजे ज्ञान को उपलब्ध होते रहना ही महान् आश्चर्यकारक है।
मूलु छंडि जो डाल चडि कह तह जोयाभास । चीरु ण वुण्णइ जाइ वढ विणु उट्टियई कपास ॥10॥ .
शब्दार्थ-मूलु-मूल, जड़ (को); छंडि-छोड़ कर; जो डाल चडि-जो डाल (पर) चढ़ता है; चीरु-वस्त्र; ण वुण्णइ जाइ-नहीं बुना जाता है; वढ-मूर्ख; विणु-बिना; उट्टियइं-ओटे; कपास-कपास (को)।
अर्थ-हे मूर्ख! मूल को छोड़कर जो डाली पर चढ़ता है अर्थात् सम्यक् श्रद्वान के बिना ज्ञान-ध्यान करना चाहता है, उसके योग का अभ्यास कहाँ है? क्योंकि कपास को ओंटे बिना वस्त्र कैसे बुना जा सकता है?
भावार्थ-मूल में मिथ्यात्व ही संसार का मूल है। उसकी जड़को उखाड़े बिना उसकी उत्पत्ति का अभाव कैसे सम्भव है? आचार्य अमितगति अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में कहते हैं
चारित्रं दर्शनं ज्ञानं मिथ्यात्वेन मलीमसम्।
कर्पटं कर्दमेनेव क्रियते निज-संगतः ॥योगसार, 4, 15 अर्थात-जिस प्रकार वस्त्र कीचड़ के द्वारा अपने संग से मैला किया जाता है, ठीक उसी प्रकार मिथ्यात्व के द्वारा अपने संग से चारित्र, दर्शन और ज्ञान मलिन किया जाता है।
फिर भी, दुनिया के अधिकतर लोग बाहरी चारित्र या सदाचार को सुधारने में लगे हुए। भीतर में मिथ्या भाव रूपी महान् मल बैठा हुआ है, उसकी ओर किसी का ध्यान नहीं है। किन्त यह सत्य है कि जब तक मिथ्या भाव अन्तरंग में मौजूद है, तब तक वास्तविक सदाचार नहीं हो सकता है। यद्यपि बाहरी सदाचार तथा नैतिकता भी भूमिका के अनुसार आवश्यक है, तिरस्कार करने योग्य नहीं है; तथापि वास्तविक चारित्र ध्यान, समाधि रूप है। सदाचार से कर्मों का आस्रव होता रहता
1. अ, क, ब जे; द, स जो; 2. अ, द कह; क कालहं जोयाभासि; ब कह; 3. अ, ब जोयाभास; क, द जोयाभासि; 4. अ, स वुण्णह; क, द वुणणह; ब वुणणहं।
पाहुडदोहा : 135