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________________ का कथन है-"जिस पुरुष के चित्त में मृगनेत्री बस रही है, उसके शुद्धात्मा का विचार नहीं है। यद्यपि स्वयं शुद्धात्मा है, लेकिन विषयों में लीनता होने के कारण उसे परमात्मा का दर्शन नहीं होता। परमात्मा का दर्शन हुए बिना विषय-भोग नहीं छूटते। लौकिक व्यवहार का नियम है कि मनुष्य अधिक लाभ प्राप्त करने की संभावना से दो पैसे खर्च करता है। यदि उसको यह लगता है कि इसमें खर्च अधिक है, लाभ कम है, तो वह दो पैसे भी खर्च नहीं करता। इसी प्रकार विषय-सुखका त्याग वही कर सकता है, जिसे अतीन्द्रिय सुख का स्वाद मिला हो। अतीन्द्रिय सुख का भाव हुए बिना वास्तव में कोई घर-द्वार नहीं छोड़ता है। यदि किसी लौकिक प्रयोजन से छोड़ता है, तो उससे संक्लेश को ही प्राप्त होता है। जेहा पाणहं झुपडा तेहा पुत्थिय काउ। तित्थु जि णिवसइ पाणिवई तहिं करि जोइय भाउ ॥109॥ ___ शब्दार्थ-जेहा-जैसे; पाणहं-प्राणों (का); झुपडा-झोपड़ा (है); तेहा-वैसे, उसी प्रकार; पुत्थियकाउ-पृथ्वीकाय (मिट्टी का पिण्ड) (है);.. तित्थु-वहाँ, उसमें; जि-पादपूरक; णिवसइ-रहता है; पाणिवइ-प्राणपति; तहिं-उसमें; करि-करो; जोइय-योगी (सम्बोधन); भाउ-भाव। ___ अर्थ-हे जोगी! जैसे देह प्राणों का झोंपड़ा है, वैसे ही पृथ्वीकाय (पुद्गल, मिट्टी का पिण्ड) है। उसमें प्राणों का अधिपति निवास करता है, उसी में भाव कर। भावार्थ-काया तो प्राणों की झोंपड़ी है। इसमें स्पर्श, रसना, घ्राण, नेत्र और कर्ण ये 5 इन्द्रियाँ, मनोबल, वचनबल तथा कायबल ये 3 बल और आयु एवं श्वासोच्छ्वास इस प्रकार दश प्राण होते हैं। इन प्राणों के बने रहने पर यह शरीर चलता-फिरता नजर आता है और इनके अलग होते ही यह मुर्दा हो जाता है। इसलिए इसे प्राणों का झोंपड़ा कहा है। वस्तुतः मिट्टी के पिण्ड में और शरीर में कोई अन्तर नहीं है। क्योंकि दोनों ही अचेतन हैं। जैसे कोई झोंपड़ी ईंट-गारे से बनती है, उसी तरह शरीर की रचना भी हड्डी, माँस, चमड़े से हुई है। इसमें ग्लानि उत्पन्न करने वाली सातों धातुओं तथा मल-मूत्रादि का प्रत्येक समय निर्माण होता रहता है। अतः गृह-निर्माण की भाँति काया की रचना भी पार्थिव तत्त्वों से होती है जो भौतिक किंवा अचेतनता की सृष्टि है। यह प्लान्ट ऑटोमेटिक है। इसकी रचना नामकर्म के निमित्त से होती है। 1. अ पुत्तियकाउ; क, द पुत्तिए काउ; ब पुत्तियकाइ; स पुत्थिय काउ; 2. अ तेत्यु; क, द तित्यु जि; ब तेत्थ; स तित्थ; 3. अ पाणवइ, क, द, ब, स पाणिवइ। 134 : पाहुडदोहा
SR No.090321
Book TitlePahud Doha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages264
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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