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हैं, सबमें हिंसा है। सामान्य देवों के मरते समय ऐसा विचार होता है कि मैं अब इस शरीर को छोड़कर पशु या स्त्री के गर्भ में जाऊँगा। इससे उसे बड़ी मानसिक पीड़ा होती है।
हिंसा में आनन्द मनाने वाला यदि किसी देश, प्रान्त या नगर के कारीगरों को कुशलतापूर्वक उद्योग करते देखता है, तो वैसी कारीगरी की वस्तु स्वयं बनाकर या बनवाकर वहाँ पर सस्ते मूल्य में बेच देता है। सस्ते दाम में बिक्री बढ़ने से वहाँ के शिल्पगत उद्योग को बड़ी हानि पहुँचता है, किन्तु स्वयं धनिक होकर अपने को बड़ा चतुर मानता है। लेकिन इस तरह के सभी कार्य हिंसामूलक हैं। जहाँ हिंसा है, वहाँ वास्तविक उन्नति नहीं हो पाती। वास्तविक उन्नति के लिए व्यक्ति, समाज तथा राष्ट्र में चतुर्दिक नैतिकता होना अति आवश्यक है। नैतिकता आए बिना समृद्धि का वास्तविक सूत्रपात नहीं होता।
सुक्खअडा' दुइ दिवहडई पुणु दुक्खह परिवाडि। .. हियडा हउं पई सिक्खवमि चित्त करिज्जहि वाडि 1107॥
शब्दार्थ-सुक्खअडा-सुख, दुइ-दो; दिवहडइं-दिनों (का); पुणु-फिर; दुक्खह-दुखों की; परिवाडि-परिपाटी, परम्परा (ह); हियडा-हृदय (सम्बोधन); हउं-मैं; पइं-तुझे सिक्खवमि-सिखाता (हूँ); चित्त-चित्त (को) करिज्जहि-करें; वाडि-मार्ग पर।
अर्थ-सुख तो दो दिन का है, फिर दुःखों की परिपाटी है। अतः हे हृदय! मैं तुझे सिखाता हूँ कि सम्यक् मार्ग पर चित्त दे।
भावार्थ-इसी भाव का एक दूसरा दोहा “परमात्मप्रकाश” (2,138) में मिलता है, जिसमें कहा गया है कि पंच इन्द्रियों का सुख विनाशीक, दो दिनका है। फिर, बाद में इन इन्द्रियों के विषयों की दुःख की परिपाटी (परम्परा) है।
यहाँ पर भी यही कहा गया है कि विषय-सुख तो दो दिन के हैं, फिर दुःखों की लम्बी परम्परा है। वास्तव में इन्द्रियों के विषयों से मिलने वाले सुख क्षणभंगुर हैं। इनसे क्षण भरके लिए सुख मिलता है, फिर तो दुःख ही दुःख हैं। विषय का सेवन अन्त में दुःख ही देता है।
मनोरंजन करने वाले राग के लुभावने दृश्य प्राणी मात्र के लिए कम आकर्षक नहीं होते हैं। दृश्यमान जगत के भीतर और बाहर सभी स्तरों पर राग-रंग के
1. अ, स सुक्खडइं; क, द, व सुक्खडा; 2. अ दियहडइ; क, द दिवहडई; व दिवहडहिं; स दिवहडइ; 3. अ दुक्खह; क, द, स दुक्खह; व दुक्खहिं; 4. अ करिज्जाह; क, द करिज्जहि; ब करिजहि; स करिज्जइ।
132 : पाहुडदोहा