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अर्थात्-जिसके हृदय में समता नहीं है, जो सदा शरीर आदि पर पदार्थों में मग्न रहता है और अपने आतमराम को नहीं जानता है, वह जीव अपराधी है।
इसकी अज्ञानता का क्या वर्णन किया जाए? जो सोना, चाँदी, मकान, जेवर, पहाड़ों की मिट्टी, खेत आदि हैं, उनको निज सम्पत्ति कहता है। इन्द्रियों से ज्ञान होना मानता है, सभी तरह के भौतिक पदार्थों के मिलने से अपने को वैभवशाली कहता है। यथार्थ में भौतिकता का ऐसा साम्राज्य फैल गया है कि उसे ही यह सब कुछ समझता है।
जीव वहंतइ णरयगई अभयपदाणे सग्गु। बे पह भव लगि दरिसियई जहिं भावइ तहिं लग्गु ॥106॥
शब्दार्थ-जीव-जीव (के); वहंतइ-वध करते हुए; णरयगइ-नरक गति; अभयपदाणें-अभय प्रदान करने (दान देने) से; सग्गु-स्वर्ग (होता है); बे पह-दोनों (पाप-पुण्य, अशुभ-शुभ) मार्ग; भवलगि-संसार के लिए (हैं); दरिसियइं-दर्शाये गए हैं; जहिं-जहाँ; भावइ-भाता है; तहिं-वहाँ; लग्गु-लगो।
अर्थ-जीव का वध करने से नरक गति मिलती है और अभयदान करने से स्वर्ग मिलता है। ये दोनों ही संसार के लिए हैं। इसलिए जो रुचिकर हो, उस मार्ग में लगो।
भावार्य-मारने-पीटने और लड़ाई करने आदि में प्राणी को पहले से ही आकुलता व दुःख का अनुभव होता है और अन्त में भी आकुलता तथा दुःख होता है। यह व्यावहारिक उपदेश प्रसिद्ध है-“जो जैसा करता है, वैसा फल पाता है।"
अतः मारने, पीटने वाले को सुख कहाँ है? यदि इस जन्म में कोई अपने सोचे अनुसार किसी प्राणी की हत्या कर देता है, तो अपने खोटे परिणामों से वह अगले जन्म में नरक का आवास प्राप्त करता है जहाँ निरन्तर एक-दूसरे पर क्रोध करना, शस्त्र प्रहार करना आदि कष्ट देता व सहता रहता है। दूसरे प्राणियों को कष्ट देकर कष्ट दिलाकर तथा कष्ट देते हुए जानकर-जिसके मन में प्रसन्मता होती है, वह हिंसानन्दी रौद्रध्यानी कहा जाता है। हिंसा में आनन्द मनाने वाला यदि कोई वैद्य है, तो वह रात-दिन यही सोचता रहता है कि जनता में बीमारियाँ फैलें, तो मेरे धन्धे में तरक्की हो। जो भी दूसरे के सम्बन्ध में बुरा, अनिष्ट या हानि पहुँचाने के भाव
1. अ वहते; क, द वहति; ब, स वहंतह; 2. अ, क, स णरयगइ; द णरयगउ; व णरायगइ; 3. अ अभयपदाणिं; क, द अभयपदाणे; ब, स अभयपदाणे; 4. अ, द जब ला; क जबले; ब, स जमला; 5. अ दरसियइं; क, ब, स दरिसियइं; द दरिसियउ।
पाहुडदोहा : 131