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________________ - रंजिउ–रक्त, अनुरक्त; भुवणयलि – भुवनतल में; सो - वह (उसे); जोइय - (हे ) जोगी!; करि - बना ले; मित्तु - मित्र । अर्थ - हे जोगी! जिसका चित्त इस लोक में सब रागों में, छह रसों में तथा पाँच रूपों में अनुरक्त नहीं है, उसे अपना मित्र बना । भावार्थ- आचार्य अमितगति तो यह कहते हैं कि साधु को इन्द्रियों के विषयों का स्मरण भी नहीं करना चाहिए। जो बार - बार इन्द्रिय-विषयों का स्मरण करता है, वह इन्द्रियों को उनके विषयों से अलग रखता हुआ भी सदा दुखी, दीन और दोनों लोकों का बिगाड़ने वाला होता है। (योगसार, 9, 65 ) वस्तुतः भेद - विज्ञान के बल पर जो देह और चेतन के भेद का अनुभव कर लेता है, वह कभी भी पाँचों इन्द्रियों और उसके विषयों में अनुराग नहीं करता है । इसलिए योगियों को साधु-सन्तों की सत्संगति में रहना चाहिए । जितने भी रंग-रूप, रस आदि हैं, वे सब अचेतन हैं। उनके साथ सम्बन्ध रखने से संसार बढ़ता है । अतः प्रत्येक गृहस्थ को यह भावना भानी चाहिए कि बहून् वारान् मया भुक्तं सविकल्पं सुखं ततः । तनापूर्वं निर्विकल्पे सुखेऽस्तीहा ततो मम ॥ ज्ञानार्णव 10, 96 अर्थात्-मैंने बहुत बार विकल्पमय सांसारिक सुख भोगा है जो सबके जीवन में थोड़ा-बहुत है । उसमें कोई अपूर्वता नहीं है । इसलिए उस सुख की तृष्णा को छोड़कर मैं निर्विकल्प सहज सुख पाना चाहता हूँ। पं. द्यानतरायजी सरल शब्दों में कहते हैं जो जानै सो जीव है, जो मानै सो जीव । जो देखै सो जीव है, जीवै जीव सदीव ॥ जीवै जीव सदीव, पीव अनुभौरस प्रानी । आनन्द कन्द सुछन्द, चन्द पूरन सुखदानी ॥ जो जो दीसै दर्व, सर्व छिनभंगुर सो सो । सुख कहि सकै न कोई, होई जाकौं जानै जो ॥ - धानतविलास वास्तव में वह सहज आनन्द 'अकथ' है, जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता है। जो अनुभव करता है, वही जानता है कि अतीन्द्रिय अखण्ड आनन्द कैसा होता है। इसलिए अब वही प्राप्त करने योग्य है । पाहुडदोहा : 127
SR No.090321
Book TitlePahud Doha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages264
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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