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अर्थ-मैं सगुण (गुणों से सहित, रागादि, विकारी भाव युक्त) हूँ और प्रिय (परमात्मा) निर्गुण, निराकार (लक्षण रहित), निःसंग हैं। एक ही अंग (प्रदेश) में रहने पर भी अंग (अंश) से अंग नहीं मिल पाया अर्थात् अंश मात्र भी एक-दूसरे के स्वभाव में नहीं मिल पाया है।
भावार्थ-यहाँ पर 'प्रिय' शब्द का प्रयोग प्रतीक के रूप में परमात्मा के लिए ग्रहण किया गया है। ‘सगुण' शब्द श्लिष्ट है। कवि का कथन है कि मैं (आत्मा) सगुण हूँ और प्रिय (परमात्मा) निर्गुण है। दोनों का निवास एक ही शरीर में है, किन्तु मिलन नहीं हो पाता। यथार्थ में आत्मा और परमात्मा दोनों का निवास एक ही शरीर में होने पर भी आत्मज्ञान की उपलब्धि तथा शुद्ध परिणति के बिना दोनों का मिलन ' नहीं हो पाता।
इस दोहे में रहस्यवादी भावना स्पष्ट है। हिन्दी के सुप्रसिद्ध कवि कबीर ने भी इसी प्रकार की भावना को अभिव्यक्त किया है। उनके ही शब्दों में- .... धनि पिय एकै संग वसेरा, सेज एक पै मिलन दुहेरा।
-कबीरग्रन्थावली, पद 85 “परमात्मप्रकाश" के निम्नलिखित कथन से यह पुष्टि होती है कि शुद्धात्मा से विलक्षण (भिन्न) इस देह में रहता हुआ भी वह नियम से देह का स्पर्श नहीं करता है। उनके शब्दों में
देहे वसंतु वि णवि छिवइ णियमे देह वि जो जि।
देहें छिप्पइ जो वि णवि मुणि परमप्पउ सो जि ॥ 1,34 अर्थात्-जो देह में रहता हुआ भी नियम से शरीर का स्पर्श नहीं करता, वही परमात्मा है। इस प्रकार देहात्मा भिन्न है, शुद्धात्मा भिन्न है अर्थात् केवलज्ञान प्रकाश रूप परमात्मा भिन्न है।
सव्वहिं रायहिं छहरसहिं पंचहिं रूवहिं चित्तु। जासु ण रंजिउ भुवणयलि' सो जोइय करि' मित्तु ॥102॥
शब्दार्थ-सव्वहि-सभी; रायहि-रागों में; छहरसहिं-छह रसों में; पंचहिं रूवहि-पाँच रूपों में; चित्तु-चित्त; जासु-जिसका; ण-नहीं;
1. अ सत्तहिं; क, द, स सव्वहिं; ब सव्वइ; 2. अ, क, द, ब, स रूवहिं; क रूयहिं; 3. अ, क, ब, स ण रंजिउ; द णिरंजिउ; 4. अ, द, स भुवणयलि; क भुवणयलु; ब भुवणअलि; 5. अ कर; क, द, ब, स करि।
126 : पाहुडदोहा