SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 126
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अर्थ-श्रुतियों का अन्त (पार) नहीं है, समय अल्प है तथा हम दुर्बुद्धि हैं। इसलिए हमें केवल इतना ही सीखना चाहिए, जिससे जरा-मरण का क्षय अर्थात् जन्म-मरण का अभाव हो सके। भावार्थ-इसमें कोई सन्देह नहीं है कि शास्त्रों का पार नहीं है। उन सभी शास्त्रों का अध्ययन करने के लिए हमारे पास समय नहीं है। कुछ शास्त्र तो इतने क्लिष्ट हैं कि उनमें हमारी दुर्बुद्धि का प्रवेश नहीं है। अतः हम उनका रहस्य समझना चाहें, तो बहुत कठिन है। लेकिन जन्म-मरण के अभाव करने की कला तो हम सीख सकते हैं। क्योंकि प्रयोजन तो एक ही है। इसलिए चाहे अनेक शास्त्रों का अभ्यास करें या अल्प शास्त्रों का; लेकिन हमारा प्रयोजन परम अविनाशी अतीन्द्रिय सुख की प्राप्ति का सिद्ध होना चाहिए। आचार्य अमितगति कहते हैं कि जो परम शुद्ध, बुद्ध भाव के धारक हैं तथा कर्म-कलंक से रहित हैं, उनको ध्यान का विषय बनाकर निज शुद्धात्म स्वरूप का चिन्तन करना चाहिए। जिनको उसकी महिमा प्रकट हो गई है, जो संसार का त्याग कर जन्म-जरा-मरण से रहित अतीन्द्रिय, अनुपम एवं अनन्त सुख स्वरूप मुक्ति को प्राप्त कर अनन्त काल तक वहीं तिष्ठते हैं-वास्तव में उनका श्रुत एवं तत्त्व का अभ्यास करना सफल है। वास्तव में जन्म-मरण का अभाव करने के लिए निज शुद्धात्मा का अनुभव करना ही योग्य है। कहा भी है जगत चक्षु आनन्दमय, ग्यान चेतनाभास। निरविकलप सासुत सुथिर, कीजै अनुभौ तास ॥ . अचल अखंडित ग्यानमय, पूरन वीतममत्व। ग्यानगम्य बाधारहित, सो है आतमतत्त्व ॥ -समयसार. सर्वविशुद्धिद्वार, 127-128 अर्थात-आत्मपदार्थ जगत के सब पदार्थों को देखने के लिए नेत्र के समान है, आनन्दमय है, ज्ञानचेतना से प्रकाशित है, संकल्प-विकल्प रहित है, स्वयं सिद्ध है, अविनाशी है, अचल है, अखण्डित है, ज्ञान का पिण्ड है, सुख आदि अनन्त गुणों से परिपूर्ण है, वीतराग है, इन्द्रियों के अगोचर है, ज्ञानगोचर है, जन्म-मरण तथा भूख-प्यास आदि की बाधा से रहित निराबाध है। ऐसे आत्मतत्त्व का अनुभव करो। णिल्लक्खणु इत्थीबाहिरउ अकुलीणउ' महु मणि ठियउ। तासु कारण झाणी माहुर जेण गवंगउ संठियउ ॥100॥ शब्दार्थ-णिल्लक्खणु-निर्लक्षण, लक्षणों (से) रहित; इत्थीबाहिरउ-स्त्री 1. अ अकुलाण; क, द, स अकुलीणउ; ब अकुलीण; 2. अ करणि; क, द, स कारणि; ब कारण; 3. अ झीमाइ; द थीमाइ. (?); ब झाणी; स आणी; 4. अ, क, ब, स तेण; द जेण। 124 : पाहुडदोहा
SR No.090321
Book TitlePahud Doha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages264
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy