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अर्थात् शुद्धात्मानुभव से जो आत्मज्ञान तथा शक्तिविशेष का स्फुरण होता है, वह योग है। योगी योग के बल से घातिया कर्मों का नाश कर देता है।
'योग' का अर्थ समाधि और ध्यान भी होता है। 'योगबल' का अर्थ ध्यान का बल समझना चाहिए। यहाँ पर यही अर्थ अभिप्रेत है। वास्तव में निर्मल ज्ञान जब स्थिर हो जाता है, तब वह ध्यान कहलाता है। ऐसे योगी इन्द्रियों और मन के वश में नहीं होते। इन्द्रियों और मनका गुलाम होना यह लौकिक जन की पहचान है। क्योंकि पराधीनता सबसे बड़ा दुःख है। योगी का लक्षण ही यह बताया गया है कि जिसने श्वास को जीत लिया है, जिसके नेत्र टिमकार रहित हैं, जो शरीर के सम्पूर्ण व्यापारों से रहित है, ऐसी अवस्था को जो प्राप्त हो गया है, वह निश्चय ही योगी है। (बृहत्नयचक्र गा. 388) आचार्य पद्मनन्दि के शब्दों में
वचनविराचतैवोत्यते भेदबुद्धिदृगवगमचरित्राण्यात्मनः स्वं स्वरूपम्।
अनुपमचरितमेतच्चेतनैक स्वभावं व्रजति विषयभावं योगिना योगदृष्टेः ॥ अर्थात्-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र कहने में रत्नत्रय भेद रूप मोक्षमार्ग है। यथार्थ में यह रत्नत्रय आत्मा का अपना स्वभाव है। योगी ध्यान-दृष्टि के द्वारा अनुपम इस चेतनामय स्वभाव का ही अनुभव करते हैं। कहा भी है
सुद्धातम अनुभौ क्रिया, सुद्ध ग्यान द्रिग दौर। मुकति-पंथ साधन यहै, वागजाल सब और ॥
___ -समयसार नाटक, सर्वविशुद्धिद्वार, 126 अर्थात्-शुद्ध आत्मा का अनुभव करना ही सम्यग्दर्शन-ज्ञान है, बाकी सब वाग्जाल है।
बहुयई' पढियई मूढ पर तालू सुक्कइ जेण। एक्कु जि अक्खरु तं पढहु सिवपुरि गम्मइ जेण ॥98॥
शब्दार्थ-बहुयई-बहुत; पढियइं-पढ़ने (से); मूढ-मूढ; पर-किन्तु; तालू-तालु; सुक्कइ-सूखता (जाता) है; जेण-जिससे; एक्कु-एक; जि-जो;
1. अ बहूयइ; क, द बहुयइं; ब, स बहुयइ; 2. अ, ब पढियइ; क, द, स पढियइं; 3. अ इक्कु; क, द, स एक्कु ब, स एक्क; 4. अ, ब अक्खर; क, द स अक्खरु; 5. अ पढइ क, द, ब, स पढहु; 6. अ सिउपुरि; क, द, ब सिवपुरि।
122 : पाहुडदोहा