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है। अतः उसको आत्मा शीघ्र ही प्रत्यक्ष हो जाती है। यही नहीं, जिसने मन को वश में करके भी आत्मा का परमात्मा से मिलन नहीं कराया, उसमें ऐसी शक्ति नहीं है जो योग से भी कुछ कर सके। अभिप्राय यह है कि वह कुछ नहीं कर सकता है। इसका भावार्थ लिखते हुए ब्रह्मदेवसूरि स्पष्ट करते हैं कि जिसमें मन मारने की शक्ति नहीं है, वह योगी कैसा? योगी तो उसे कहते हैं जो बढ़ाई, पूजा, लाभ आदि सभी तरह के विकल्प-जालों से रहित निर्मल ज्ञान-दर्शनमयी परमात्मा को देखे, जाने, अनुभव करे। सो ऐसा मन के मारे बिना नहीं हो सकता, यह निश्चय जानना। अतः मिथ्यात्व, विषय-कषायादि विकल्पों के समूह कर परिणत हुए मन को वीतराग निर्विकल्प समाधि रूप शस्त्र से शीघ्र ही मारकर आत्मा का परमात्मा से मिलन कराना चाहिए। (परमात्मप्रकाश, 2, 156) ___'परमात्मप्रकाश' में 'मणु मारिवि' ऐसा पाठ है और यहाँ पर 'दोहा पाहुड' में 'मणु मोडिवि' पाठ है। यह भिन्नता होने पर भी वास्तव में भाव दोनों का एक है। क्योंकि जिसका मन अब भी संसार की ओर है, ख्याति, लाभ, पूजादि चाह में लगा हुआ है, उसका मन स्वात्मोन्मुख नहीं हुआ है। अतः उसका मन वश में होकर कैसे मर सकता है? आत्मा का परमात्मा से मिलन नहीं हो सकता।
यह रहस्यवादपरक दोहा है। सो जोयउ जो जोगवइ णिम्मलु' जोयई जोई। . जो पुणु इंदियवसि गयउ सो इह सावयलोइ ॥97॥ .. शब्दार्थ-सो-वह; जोयउ-योग; जो जोगवइ-जो योगी (को); णिम्मलु-निर्मल; जोयइ-देखता है, दर्शन करता है; जोइ-ज्योति (का); जो पुणु-जो फिर; इंदियवसि-इन्द्रियों (के) वश में (हो); गयउ-गया; सो इह-वह यह; सावयलोइ-श्रावक लोग (हैं)।
अर्थ-योग तो वही है जिससे योगी निर्मल ज्योति का दर्शन कर ले। जो इन्द्रियों के अधीन हो गये हैं, वे तो ये श्रावक लोग हैं। - भावार्थ-वास्तव में योग वही है जिसमें निर्मल ज्योति विकासमान होती है। आत्मा रूपी सूर्य पर छाने वाले कर्म रूपी मेघों को योग धुन डालता है। अतः कर्मनाशक शक्ति को योग कहा गया है। आचार्य अमितगति के शब्दों में
विविक्तात्म-परिज्ञानं योगात्संजायते यतः।
स योगो योगिभिर्गीतो योगनिधूत-पातकैः ॥योगसार, 9,10 1. अ, स णिम्मलु; द णिम्मलि; क णिम्मणु; ब णिम्मणि; 2. अ भावइ; क, द, स जोइय; ब जोय; 3. अ लोउ; क, द, ब, स जोइ; 4. अ सावउलोउ; क, ब सावइलोइ; द, स सावयलोइ।
पाहुडदोहा : 121