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मिथ्यात्व, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्यादि के भेद से अन्तरंग परिग्रह चौदह प्रकार का कहा गया है। जिस प्रकार चावल में जब तक ललाई रूप मल है, तब तक तुष से सम्बन्ध बना रहता है; उसी प्रकार जब तक शुद्धोपयोग नहीं होता, तब तक शुभ-अशुभ भाव रूप कर्म-सम्बन्ध बना रहता है। अतः निज शुद्धात्मा की खोज करने के लिए सब प्रकार के सम्बन्धों से हटकर अपना चित्त अपने में स्थिर करना होता है।
यद्यपि आत्मा सन्त, निरंजन स्वभाव है, किन्तु ममता मात्र से चित्त में विक्षेप उत्पन्न हुए बिना नहीं रहता। जो योगी वस्त्र-पात्रादि का रखना, धरना, धोना, सुखाना, भंग-रक्षा करना आदि कार्य करते हैं, उनके चित्त का विक्षेप नहीं मिटता है। उनको करते हुए आरम्भ, असंयम तथा ममता का अभाव कैसे होता है? वास्तव में ममता के बिना ये कार्य नहीं हो सकते। अतः कोई साधु होकर भी किसी भी प्रकार का परिग्रह धारण किए हुए रहता है, तो उसके स्वात्म-सिद्धि नहीं हो सकतीं। लक्ष्मीचन्द्र के 'दोहाणुवेक्खा' में उक्त दोहे से मिलता हुआ दोहा इस प्रकार है
हत्थ अहुट्ठ जु देवलि, तहिं सिव संतु मुणेइ।
मूढा देवलि देव णवि, भुल्लउ काई भमेइ ॥38॥ अर्थात्-साढ़े तीन हाथ के (शरीर रूपी) देवालय में शिव परमात्मा विराजमान हैं-ऐसा समझ। हे मूढ़ ! देवालय में (चेतन) देव नहीं है। भूला हुआ कहाँ भटक रहा है?
अप्पापरहं' ण मेलयउ मणु मोडिवि सहसत्ति। सो वढ जोइय' किं करइ जासु ण एही सत्ति ॥96॥
शब्दार्थ-अप्पापरहं-आत्मा-पर का; ण मेलयउ-मेल नहीं (हो सकता); मणु-मन; मोडिवि-मोड़कर; सहसत्ति-सहसा; सो-वह; वढ-मूर्खः जोइय-योगी; किं करइ-क्या करता है; जासु ण-जिसकी नहीं; एही-ऐसी; सक्ति-शक्ति।
अर्थ-सहसा अपने मन को मोड़ लेने पर आप का मेल पर से नहीं हो सकता। किन्तु वह मूर्ख योगी क्या करे, जिसमें इतनी शक्ति नहीं है (कि वह अपने मन को मोड़ ले)।
भावार्थ-मुनि योगीन्दुदेव कहते हैं कि जिसका मन रूपी जल विषय-कषाय रूप प्रचण्ड पवन से चलायमान नहीं होता है, उस भव्य जीवकी आत्मा निर्मल होती 1. अ अप्पापरह; क, द, ब, स अप्पापरहं; 2. अ मेलियउ; क, द, स मेलयउ; व मेलविउ; 3. अ तोडवि; क तोडिवि; द, स मोडिवि; ब मोडवि; 4. अ, स जोई क, द, ब जोइय; 5. अ, द, ब, स एही; क एहा।
120 : पाहुडदोहा