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ए पंचिंदिय-करहडा जिय मोक्कला म चारि। चरिवि असेसु वि विसय-वणु पुणु पाडहिं संसारि ॥ परमात्म. 2,136 ...
अर्थात् ये प्रत्यक्ष पाँच इन्द्रिय रूपी ऊँट हैं। इनको अपनी इच्छा से मत चरने दे। क्योंकि सम्पूर्ण विषय-वन का भक्षण करके भी ये संसार में ही पटक देंगे।
वास्तव में जो संसार से बँधता है, वह कर्मों से बँधता है। कर्म-बन्धन में बँधने पर चित्त मैला हो जाता है और चित्त के मैला होने पर संसार के कार्यों में जीव आसक्त हो जाता है। इसलिए जो संसार से छूटना चाहता है, जन्म-मरण का अभाव करना चाहता है, उसे सर्वप्रथम अपने मन को वश में करना चाहिए। मन को वश में करने के लिए इन्द्रियों के विषयों की अभिलाषा का त्याग करना होगा। क्योंकि यदि मन विषयों में ही आसक्त रहा, तो ज्ञान-वैराग्य की सम्हाल नहीं हो सकती है। किन्तु आत्मिक उन्नति के लिए ज्ञान-वैराग्यपूर्ण जीवन ही उपयोगी
है।
तूसि म रूसि म कोहु' करि कोहें णासइ धम्म। धम्मि णडे णरयगइ. अह गउ माणुसजम्मु ॥94॥
शब्दार्थ-तसि-तुष्ट हो; म-मत; रूसि-रुष्ट हो; म कोह करि-मत क्रोध करो; कोहें-क्रोध से; णासइ-नष्ट होता है; धम्म-धर्म; धम्मि णठे-धर्म (के) नष्ट होने पर; णरयगइ-नरक गति; अह-अथवा; गउ-गया (चला गया, व्यर्थ गया); माणुसजम्मु-मनुष्य जन्म। ____ अर्थ-तुम अपने में तुष्ट रहो। रोष, क्रोध मत करो। क्योंकि क्रोध से धर्म नष्ट होता है। धर्म का नाश होने पर नरक गति मिलती है। तो समझना चाहिए कि मनुष्य जन्म व्यर्थ गया।
भावार्थ-जो अपने स्वभाव में नहीं रहता, वह आत्मस्वभाव से बाहर आते ही क्रोध, मान आदि भावों को करने में लग जाता है। इसलिए उत्तम तो यही है कि निज आत्मा के स्वभाव में रहे। क्रोध का आवेश होने पर पहले यह स्वयं जलता है और फिर दूसरे को जलाने की चेष्टा करता है। जैसे उग्र विषधारी सर्प डाभ, तृणांकुर से दुखी होकर क्रोधित होता है और क्रोध से तृणों के ऊपर फन पटकने से धर्मरहित निःसार हो जाता है। फिर, क्रोध से नरक-निगोद को प्राप्त होता है। (भगवती आराधना, गा. 1364-1368)
1. अ कोह; क, द, ब, स कोहु; 2. अ, ब धम्मे; क धम्में; द, स धम्मि; 3. अ, ब, स णद्वे; क, द णहिँ; 4. अ, स णरयगय; क, द, ब णरयगइ।
118 : पाहुडदोहा