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ही निरन्तर ध्यान है, वहाँ संकल्प-विकल्पों को कहाँ अवकाश है? अपने आत्मस्वभाव में जिनकी स्थिरता है, वे अपने में ही लीन होने के कारण निरन्तर-ध्यान-काल में अपने स्वभाव को जानने, देखने और रमने में लगे रहते हैं। इस प्रकार के योगी ही विकल्पों के जाल से निकलकर निर्विकल्प साधना में लीन रहते हैं। घोर उपसर्ग, परीषहों के बीच भी वे सुमेरु के समान निश्चल निज शुद्धात्म स्वभाव में लवलीन रहते हैं। अतः अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख तथा वीर्य रूप अपने स्वभाव को प्राप्त कर मुक्ति को प्राप्त करते हैं।
शास्त्रों में ठीक ही कहा गया है कि महामोह रूपी अग्नि से जलते हुए इस जगत् में देव, मनुष्य, तिर्यंच, नारकी सभी दुःखी हैं, किन्तु जो तपोधन (तपस्वी) हैं तथा सभी प्रकार के विषयों का सम्बन्ध जिन्होंने त्याग दिया है, ऐसे साधु, मुनि ही इस लोक में सुखी हैं।
अरि मणकरह म रइ करहि इंदियविसयसुहेण। सोक्खु णिरंतरु जेहिं णवि मुच्चहि ते वि खणेण ॥93॥
शब्दार्थ-अरि-अरे!; मणकरह-मन (रूपी); करभ (ऊँट); म-मत; रइ-रति (प्रेम); करहि-करो; इंदियविसयसुहेण-इन्द्रियों (के) विषय-सुख से; सोक्खु-सुख; णिरंतरु-निरन्तर; जेहि-जिन से; णवि-नहीं; मुच्चहि-छोड़ो; ते वि-उन (सभी को) खणेण-क्षण भर में।
___ अर्थ-अरे मन रूपी ऊँट! इन्द्रियों के विषयों के सुख से राग भाव मत कर। जिनसे निरन्तर (अक्षय) सुख नहीं मिल सकता, उन सब को क्षण मात्र में छोड़ देना चाहिए।
भावार्थ-यहाँ पर मन को ऊँट के समान बताया है, लेकिन प्रायः मन को बन्दर की उपमा दी जाती है। वास्तव में मन की चंचलता को बताने के लिए ही ये उपमान हैं। ... कुलभद्राचार्य कहते हैं कि यह जीव पाँचों इन्द्रियों के विषयों से विरक्त होकर विनय और आचार सहित ज्ञानकी भावना करने से आत्मा के कल्याण को प्राप्त करता है।(सारसमुच्चय, श्लोक 4) . मुनिश्री योगीन्द्रदेव ने भी पाँचों इन्द्रियों को ऊँट की संज्ञा दी है। उनके ही शब्दों में
1. अ, ब सोक्खु; द, स सुक्खुः क मुक्खु; 2. अ जेहि; क, द, ब, स जेहिं; 3. अ मुच्चहिं; क, द, स मुच्चहि; व मुच्चइ।
पाहुडदोहा : 117