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________________ संकल्प-विकल्पों की भँवरों में अपनी जीवन-नौका फँसा रखी है। जैसे ही यह आत्म-स्वभाव में निश्चल होता है, संकल्प-विकल्पों के निरोध से मुक्तस्वरूप अनुभव करता है, वैसे ही आस्रवों से निवृत्त हो जाता है। (समयसार, गा. 73 टीका) जहाँ-जहाँ आस्रव है, वहीं कर्म का बन्ध है। प्रथम समय में जो आस्रव है, दूसरे समय में वह बन्ध है। दो समय तक ठहरना बन्ध है। जहाँ बन्ध है, वहाँ संसार है। आत्मा में रमण करने वाले योगी को कर्म का बन्ध नहीं होता। इसलिए उक्त दोहे में यह कहा गया है कि निज शुद्धात्मा के स्वरूप में स्थिर रहना चाहिए। अध्यात्म में शुद्धात्मा में लौ लग जाने पर उसमें जो तल्लीनता होती है, उसे ही स्थिरता कहा जाता है। स्थिरता को चारित्र कहा गया है। इस स्थिरता के होने पर राग-द्वेष का अभाव होता है। जैसे-जैसे स्थिरता बढ़ती जाती है, वैसे ही वैसे राग-द्वेष घटते जाते हैं। 'राग-द्वेष' को ही 'मल' कहा गया है अथवा कर्म को भी 'मल' कहते हैं। जोइय जोएं। लइयेण जइ धंधइ ण पडीसि। देहकुडिल्ली परिखिवइ तुहुँ' तेमइ अच्छेसि ॥92॥ शब्दार्थ-जोइय-योगी; जोएं-योग को; लइयेण-लेकर, धारण कर; जइ-यदि; धंधइ-धन्धे में; ण पडीसि-नहीं पड़ोगे; देहकुडिल्ली-देह (रूपी) कुटिया; परिखिवइ-नष्ट होगी; तुहुं-तुम; तेमइ-उस तरह; अच्छेसि-अक्षय हो जाओगे। . अर्थ-हे जोगी! योग धारण कर (अर्थात् आत्मस्वभाव में लीन रहा करो) यदि धन्धे (संकल्प-विकल्प) में नहीं पड़ोगे, तो तुम अक्षय हो जाओगे और इस देह रूपी कुटिया का क्षय हो जाएगा। भावार्थ-इस जगत में कितने ही साम्य भाव के धारक धन्य योगीश्वर हैं, जिनके भीतर भेदज्ञान के बल से मन की वृत्ति रुक जाने से उत्तम ध्यान का प्रकाश परम निश्चल हो रहा है, जिसको देखकर आश्चर्य होता है। वे ऐसे निश्चल ध्यानी हैं कि किसी प्रकार का उपसर्ग आने पर भी ध्यान से चलायमान नहीं होते। यदि मस्तक पर वज्रपात पड़े या तीनों लोक अग्नि में जल जाएँ तथा प्राणों का नाश भी हो जाए, तो भी उनके परिणामों में विकार नही होता। (पद्मनन्दिपंचविंशतिका, यति भावना, 7) __ऐसे साधु-सन्त नियम से निर्वाण को प्राप्त होते हैं। प्रायः साधु निर्विकल्प आत्म-ध्यान, समाधि तथा आत्म-चिन्तन में लीन रहते हैं। जहाँ निज शुद्धात्मा का 1. अ जोइय; क, द जोएं; ब जोइं, स जोए; 2. अ, द लइयइण; क लइण; व लइयाएण; स लइयेण; 3. अ, क, ब देहकुडिल्ली; द, स कुडुल्ली; 4. अ, ब तुहु; क, द तुहूं; स तुह। 116 : पाहुडदोहा
SR No.090321
Book TitlePahud Doha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages264
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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