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________________ परिणमन है कि तीन लोक के सम्पूर्ण ज्ञेयाकार पदार्थ न तो उनके ज्ञान के भीतर आ जाते हैं और न केवलज्ञानी का ज्ञान लोकप्रमाण असंख्यात प्रदेशों को छोड़कर कहीं बाहर उन ज्ञेय पदार्थों को विषय करने जाता है। वास्तव में अर्हन्त परमात्मा उस समय परम अतीन्द्रिय सुख में लीन रहते हैं और ज्ञाता-द्रष्टा ही रहते हैं। आचार्य शिवकोटि कहते हैं कि सर्वज्ञ भगवान भूत, भावी और वर्तमान के सभी चर-अचर पदार्थों को चित्रपट की भाँति प्रत्यक्ष जानते हैं। त्रिकालवर्ती सभी द्रव्यों को उनकी समस्त गुण-पर्यायों सहित सम्पूर्ण लोक-अलोक को चित्रपट की भाँति एक साथ एक समय में देखते हैं।(भगवती आराधना, श्लोक 2109) आचार्य शुभचन्द्र तो यह कहते हैं कि केवलज्ञान ज्योतिका स्वरूप योगियों ने ऐसा कहा है कि जिस ज्ञान के अनन्तानन्त भाग में ही सभी चर-अचर, लोक-अलोक प्रतिभासित हो जाता है। ऐसे अनन्त लोक हों, तो भी उस ज्ञान में झलकते हैं। इतना व्यापक तथा विशाल केवलज्ञान है। (ज्ञानार्णव, 10-7) अप्पा अप्पि परिट्ठियउ कहिं वि ण लग्गइ लेउ। सब्बु जि' दोसु महंतु तसु जं पुणु होइ वि छेउ ॥1॥ शब्दार्थ-अप्पा-आत्मा; अप्पि-आप में; परिट्ठियउ-स्थिर हो गया; कहिं-कहीं; वि-भी; ण लग्गइ-नहीं लगता है; लेउ-लेप, मल, दोष; सब्बु जि-सब ही; दोसु-दोष; महंतु-महान; तसु-उसका, उनका; जं पुणु-जो फिर; होई-होता है; विछेउ-विच्छेदन। अर्थ-जब आत्मा अपने आप में स्थिर हो जाती है, तब कहीं भी उसमें कोई मल नहीं लगता और वे सभी महादोष भी नष्ट हो जाते हैं जो पुरातन काल से संयोग में हैं। भावार्थ-आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि निश्चयनय से जो आत्मा अपनी आत्मा में लीन हो जाता है, वही योगी सम्यक् चारित्रवान होता हुआ निर्वाण को प्राप्त करता है।(मोक्षपाहुड, गा सं. 83) ... वास्तव में आत्मा निर्मल अनुभूति मात्र से शुद्ध है। क्योंकि ज्ञानानुभूति में निर्मल आत्मा का ही अवलोकन होता है। आचार्य अमृतचन्द्र का कथन है-जैसे समुद्र के भँवर ने बहुत समय से किसी जहाज को पकड़ रखा हो; जब वह भँवर शान्त होता है, तब जहाज छूट जाता है। इसी प्रकार अनादि काल से इस जीव ने 1. अ परिट्ठियहिं; क, द, स परिट्ठियउ; ब परट्ठियउ; 2. अ कहि; क, द, स कहिं; ब कह; 3. अ, द, ब लेउ; स लेव; क लोउ; 4. अ ज; क जु; द, ब, स जि; 5. अ, क तहो; द, ब, स तसु; 6. अ होइ वि; क, द होइ; अ, ब, स होसइ। पाहुडदोहा : 115
SR No.090321
Book TitlePahud Doha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages264
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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