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लिए कर्मरहित सिद्ध अवस्था के लिए तड़पते रहते हैं। जो नित्य, निर्विकार, उत्कृष्ट सुख के स्थान, सहज शक्ति से भरपूर, निर्दोष, पूर्ण ज्ञानी, अनादि-अनन्त हैं, सभी विरोधों से रहित, सर्वांग से सुन्दर वे लोक के शिरोमणि सिद्ध भगवान हैं जो सदा जयवन्त हैं। (समयसार नाटक, मंगलाचरण, पद सं.4)
आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं कि आज तक जो सिद्ध हुए हैं, वे भेद-विज्ञान के बल से सिद्ध हुए हैं। यहाँ पर विज्ञानाद्वैतवादी बौद्ध और वेदान्ती जो वस्तु को अद्वैत कहते हैं और अद्वैत के अनुभव से सिद्धि मानते हैं, उनका निषेध किया गया है। क्योंकि जो वस्तु को सर्वथा अद्वैत न होने पर भी उस रूप मानते हैं, उनके भेद-विज्ञान की सिद्धि नहीं हो सकती। भेद-विज्ञान के प्रकट करने के अभ्यास से शुद्ध तत्त्व की उपलब्धि होती है, चित्त निर्मल होता है और राग-समूह विलीन होने लगता है, तभी कर्मों का आना रुकता है और ज्ञान का उदय होता है, निर्मल प्रकाश होता है और एक दिन परम अविनाशी अतीन्द्रिय सुख की प्राप्ति अर्थात् ज्ञान ज्ञान में अचल हो जाता है। इस प्रकार सिद्धत्व की प्राप्ति होती है। (समयसारकलश, 131, 132)
केवलु' मलपरिवज्जियउ जहिं सो ठाइ अणाइ। तस' उरि सवु जगु संचरइ परइ ण कोइ वि जाइ ॥90॥
शब्दार्थ-केवलु-केवल (ज्ञान); मलपरिवज्जियउ-मल से रहित; जहिं-जहाँ; सो--वह; ठाइ-स्थित (है); अणाइ-अनादि (से); तस-उसके; उरि-हृदय में; सवु-सब जगु-जग; संचरइ-संचरण करता है अर्थात् ज्ञान का ज्ञेय होता है; परइ-परे; ण कोइ वि जाइ-नहीं कोई भी जाता, जा सकता है।
. अर्थ-जहाँ पर मल से रहित, अनादि केवलज्ञानी भगवान् स्थित है, वहीं उनके हृदय में तीन लोक परिणमनशील प्रतिबिम्बित होता है। उनके ज्ञान के परे कोई भी
नहीं जा सकता
भावार्थ-उक्त दोहा आचार्य समन्तभद्र के “रत्नकरण्डश्रावकाचार" का अनुवाद है, जिसमें कहा गया है कि जिनकी आत्मा सभी कर्म-मलों से रहित उस केवलज्ञान में स्थित है; जिनके ज्ञान-दर्पण में तीन लोक, तीन कालके चराचर पदार्थ एक साथ एक समय में प्रतिबिम्बित होते हैं; उनके ज्ञानकी स्वच्छता का ऐसा
1. अ, द, स केवलु; क सीलहं कलपरि; ब केवल; 2. अ मलपरिवज्जिय; द मलपरिवज्जियइं; क मलपरिवज्जियउ; ब मलपरपज्जियइ; 3. अ, क, ब, स जहिं; द यई; 4. अ, ब, स तसुः क, द तस; 5. अ ण; क, द, ब, स वि।
114 : पाहुडदोहा