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कर्मों को बहुत जन्मों में क्षय करता है, उन कर्मों को आत्मज्ञानी मन, वचन, काय की सहज रोक होने से गुप्ति रूप आत्म-ध्यान के द्वारा अन्तर्मुहूर्त में क्षय कर डालता है। उनके ही शब्दों में
उग्गतवेणण्णाणी जं कम्म खवदि भवहिं बहएहिं।
तं णाणी तिहि गुत्तो खवेदि अंतोमुहूत्तेण ॥ -मोक्षपाहुड, गा.सं. 53 आचार्य गुणभद्र कहते हैं कि जैसे रत्न अग्नि में रहकर शुद्ध हो जाता है तथा दीप्ति को धारण करता हुआ शोभायमान होता है, वैसे जीव रुचिवान शास्त्र में रमण करता हुआ एक दिन मुक्ति को प्राप्त हो जाता है। लेकिन जैसे अंगारा अग्नि में पड़ा हुआ कोयला या राख हो जाता है, वैसे ही मनुष्य शास्त्रों को पढ़ते हुए भी रागी-द्वेषी होकर कर्मों से मैले होते रहते हैं। अतः शास्त्र पढ़ने से क्या लाभ मिला? (आत्मानुशासन, श्लोक 176)
यथार्थ में आत्मज्ञान की शिक्षा प्राप्त करने के लिए उस विषय के शास्त्रों का यथार्थ ज्ञान आवश्यक है। पं. द्यानतरायजी के शब्दों में
सिद्ध हुए अब होई जु होंइगे, ते सब ही अनुभौ गुन सेती। ता बिन एक न जीव लहै सिव, घोर करो किरिया बहु केती।
ज्यों तुष माहिं नहीं कन-लाभ, किए नित उद्यम की विधि जेती - यौं लखि आदरिये निज भाव, विभाव विनास कला सुभ एती ॥
__ -द्यानत विलास, 66
सयलु वि कोवि तडप्फडई' सिद्धत्तणहु तणेण। सिद्धत्तणु परि' पावियइ चित्तह णिम्मलएण ॥89॥
शब्दार्थ-सयलु वि-सभी; कोवि-कोई; तडप्फडइ-तड़पते हैं); सिद्धत्तणहु-सिद्धत्व (पाने); तणेण-के लिए; सिद्धत्तणु-सिद्धत्व; परि-किन्तु; पावियइ-प्राप्त होता है; चित्तहं-चित्त (की); णिम्मलएण-निर्मलता से। ___अर्थ-सब कोई सिद्ध होने के लिए तड़पते हैं; किन्तु सिद्धत्व चित्त के निर्मल होने के उपरान्त ही प्राप्त होता है।
भावार्थ-संसार के सभी जीव दुःखों से घबराकर दुःखों से छुटकारा पाने के
1. अ, स कोइ; क, द, ब को वि; 2. अ चडप्फडइ; क, द, ब, स तडप्फडइ; 3. अ सिद्धतणहो; क, द, ब, स सिद्धत्तणहु; 4. अ, क पर; द, ब, स परि; 5. अ पाईयइ; क, द, ब, स पावियइ; 6. अ चित्तह; क, द, ब, स चित्तहं।
पाहुडदोहा : 113